Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
शक्तिको अन्तर्भूत करोगे तो क्षीणकषाय बारहवें गुणस्थानके पहिले समयमे ही वह शक्ति प्रगट हो जावेगी । तब ही सोलह प्रकृतियोंकी निर्जरा बारहवेंके आदिमें ही हो जानी चाहिये। किंतु हम देखते हैं कि निद्रा और प्रचलाको निर्जरा बारहवेंके मन्त्यके निकट पूर्ववर्ती उपान्त्य समयमै होती है और ज्ञानावरण आदि चौदह प्रकृतियोंकी निर्जर। बारहवेंके अन्त समय में होती है। सो न होसकेगी। भावार्थ -- बारहवें के आदिमें ही शेष सोलह घातिया प्रकृतियों के नाश होनेका प्रसंग आता है, जोकि सिद्धान्तसे विरुद्ध है ।
दर्शनादिषु तदनंतर्भावे तदावारकं कर्मान्तरं प्रसज्येत दर्शनमोहज्ञानावरणचारित्रमोहानां तदावारकत्वानुपपत्तेः ।
यदि दर्शन ज्ञान और चारित्र में उस शक्तिका गर्भं न करोगे अर्थात् दूसरे पक्षके अनुसार कमकी निर्जरा करने की शक्ति को अन्य स्वतंत्र गुण मानोगे तो उस शक्तिका आवरण करनेवाला नववां कर्म माननेका प्रसङ्ग आपडेगा । क्योंकि दर्शन मोहनीय, ज्ञानावरण और चारित्रमोहनीय sant उस शक्तिका कदेनापन सिद्ध नहीं है । अतः जैसे ज्ञानको रोकनेवाला स्वतंत्र ज्ञानावरण कर्म है, वैसे ही शक्तिको रोकनेवाला नौवां निर्जरणावरण कर्म होना चाहिये ।
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वीर्यान्तरायस्तदावारक इति चेन्न, तत्क्षयानन्तरं तदुद्भवप्रसंगात् । तथा चान्योन्याश्रयणम् - सति वीर्यान्तरायक्षये तन्निर्जरणशक्त्या विर्भावस्तसिंश्च सति वीर्यान्तरायक्षय इति ।
यदि कोई यों कि वीर्यान्तराय कर्म उस शक्तिका आवरण करनेवाला पहिलेसे ही बना मनायां कर्म विद्यमान है, फिर नवत्रां कर्म क्यों माना जाता है ! यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि तब तो उस वीर्यन्तराय कर्मके क्षय होने के पीछे तत्काल उस शक्तिकी उत्पत्ति हो सकेगी और ऐसा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष है कि वीर्यान्तरायके क्षय होनेपर तो उन चौदह कमौके निर्जरा करनेकी शक्ति होवे और चौदह कमौके क्षय करनेवाली उस शक्तिके प्रगट हो जानेपर वीर्यान्तराय कर्मका क्षय होवे | क्योंकि चौदह प्रकृतियों के मध्यमे स्वयं दीर्यान्तराय कर्म भी तो पढा हुआ है । इस प्रकार परस्पराश्रय दोष है ।
एतेन ज्ञानावरणप्रकृतिपंचकदर्शनावरणप्रकृतिचतुष्टयांतराय प्रकृतिपञ्चकानां तनिर्जरणशक्तेरावारकत्वेऽन्योन्याश्रयणं व्याख्यातम् ।
इस उक्त कथन के द्वारा ज्ञानावरणकी पांच प्रकृतियोंको और दर्शनावरणकी पहिली चार प्रकृतियोंको तथा अंतराय की पांचों प्रकृतियोंको मी उस निर्जरण शक्तिका आवरक कर्मेपना मानने पर भी अन्योन्याश्रय हो जाता है, यह भी व्याख्यात हो चुका। अर्थात् प्रतिबंधक होरही ज्ञानावरण प्रकृतिक नाश होनेपर वह शक्ति उत्पन्न होवें और उस शक्ति के उत्पन्न हो जानेपर ज्ञानावरणका नाश होवे, ऐसा ही परस्पराश्रय दोष अन्य दो पिण्ड प्रकृतियों के प्रतिबंधक बनने में भी समझ लेना ।