Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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A
तदसत्तत्प्रतिद्वन्द्विकर्माभावे तथेष्टितः ।
कारणं हि स्वकार्यस्याप्रतिबन्धिप्रभावकम् ॥ ८१ ॥
यहां कोई आक्षेपक शंका करते हैं कि कारण उसको कहते हैं, जो उत्तरक्षण में कार्यको उत्पन्न कर देवे | यदि आप जैन पूर्णज्ञानका कारण सम्यग्दर्शन गुणको मानते हैं तो उस क्षायिकदर्शन अव्यवहित उत्तर कामे केवलज्ञानकी उत्पत्ति क्यों नहीं हो जाती है ? बताओ । जब कि कारण है, लब कार्य होना ही चाहिये । श्रीविद्यानंद आचार्य समाधान करते हैं कि इस प्रकार किसीका वह कहना प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि कारणके लक्षण प्रतिबंधकोंका अभाव पडा हुआ है। अर्थात् जो प्रतियन्त्रकोंसे रहित होता हुआ कार्यके अव्यवहित पूर्वे समयमे रहे सो कारण है । ची, तेल, दीपशलाका, दिया इन कारणों के होनेपर भी यदि आंधी चल रही है तो दीपशलाका प्रज्वलित नहीं हो सकती है । तथा सम्पन्न सेठ के पास भोग उपभोग की सामग्री होते हुए भी असातावेदनीय या अन्तराय कर्मके उदय आनेपर रोग अवस्थामें उसको केवल मूंगके दालका पानी ही मिलता है | अतः प्रतिबन्धका अमात्र होना कार्यकी उत्पत्तिमें सहायक है । प्रकृतमें उस केवलज्ञानका प्रतिबन्ध करनेवाले केवलज्ञानावरण और अन्तराय कर्म विद्यमान हैं । अतः चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुरुस्थानतक किसी भी गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जानेपर भी प्रतिबंधकोंके माडे आजानेके कारण केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो पाता है। हां! एकत्वक्तिकैबीचार नामके द्वितीय शुध्यानद्वारा बारहवें गुणस्थानके अन्तमें प्रतिद्वन्दी कमौका अभाव हो जानेपर अनन्तर काल उस प्रकार केवलज्ञानकी उत्पत्ति होना हम इष्ट करते हैं। जब कि प्रतिबन्ध कोंसे Rita clear at कारण अपने कार्यका अच्छा उत्पादक माना गया है ।
नहि क्षायिकदर्शनं केवलज्ञानावरणादिभिः सहितं केवलज्ञानस्य प्रभवं प्रयोजयति । तैस्तत्प्रभावत्वशक्तेस्वस्य प्रतिबन्धात् येन तदनन्तरं तस्योत्पादः स्वात् । तैर्वियुक्तं तु दर्शनं केवलस्य प्रभावकमेव तथेष्टत्वात्, कारणस्याप्रतिबन्धस्य स्वकार्यजनकत्वप्रतीतेः ।
सर्व माने गये केवलज्ञानावरण कर्मका उदय और सत्त्व तथा मन:पर्यय, अवधिज्ञान, पति और श्रुतकी देशघाती प्रकृतियोंका उदय तथा इनके अविनाभावी कुछ अंतरायकी देशपात करनेवाली प्रकृतियोंका उदय बारहवे गुणस्थान तक केवलज्ञानको रोकनेवाला है | अतः केवलज्ञानावरण आदि कोंके साथ रहता हुआ क्षायिक सम्यग्दर्शन तो केवलज्ञानकी उत्पत्तिका प्रयोजक नहीं है। क्योंकि केवलज्ञान और अनंतसुखको बिगाडनेवाले उन केवलज्ञानावरण आदि कमने उन सम्यग्दर्शनकी केवलज्ञानको उत्पन्न करादेनेवाली उस शक्तिका प्रतिबंध ( रोकना ) कर दिया है जिससे कि दर्शनके अव्यवहित काळने उस केवलज्ञानकी उत्पत्ति हो सके । भावार्थ- कार्य करने के लिये कारणकी उन्मुखता होनेपर मध्य में प्रतिबंधकके आ जानेसे केवलज्ञानरूप कार्य नहीं हो पाता