Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः '
तथा हेत्वन्तरोन्मुक्तयुक्तरूपेण विच्युतौ ।
जातौ च क्षायिकत्वेन स्थित किमु न तादृशः ॥ ७९-॥
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पूर्व समय रहना स्वभावरूप विशेषणका नाश और उत्तरक्षण रहजाना स्वभावरूप विशेषणका उत्पाद तथा प्रतिपक्षी कमौके क्षयसे उत्पन्न हो गये-पनसे सर्वदा स्थित रहना, इस प्रकार तीन लक्षण जैसे ही उन क्षायिक मावोंके आप शंकाकार मानते हैं, वैसे ही अन्य कारणोंसे रहितपने स्वमावसे नाश होना और दूसरे कारणों सहितपने करके उत्पांचे तथा क्षायिकपने से स्थिति रहना माननेवर क्यों नहीं वैसा सीन लक्षणपना माना जाता है ! अर्थात् व्यवहारफारूप विशेarter जैसे उत्पाद, विनाश माना जाता है, वैसे ही क्षायिकदर्शनमें विशिष्ट ज्ञानके असहचारीपनका नाश और विशिष्ट ज्ञानके सहचारीपनका उत्पाद तथा अपने स्वरूपछामका कारण क्षायिकपने करके स्थित रहना, ये तीनों स्वभाव भी मानने चाहिये। एक एक द्रव्यमे या उसके प्रत्येक गुण अथवा उसकी पर्यायों में भी अनेक प्रकारोंसे त्रिलक्षणता मानी गयी है । दूषका दही बन जाता है, यहां पतले या नरमपनका नाश कठिनताका उत्पाद और स्पर्शकी स्थिति है एवं मधुरताका नाश, खट्टापनका उत्पाद, स्वादु रसकी स्थिति है । बलोत्पादक शक्तिका नाश है । कफको पैदा करने वाले स्वभावका उत्पाद है। गोरसकी शक्ति स्थित है। उष्णता प्रकृति ( तासीर) का नाथ, शीतत प्रकृति ( तासीर) का उत्पाद, समान प्रकृतिपनेकी स्थिति है। दूध, दही में अनेक स्वभाव होनेसे ही यह व्यवस्था मानी गयी है। पर्यायों में मी अनेक स्वभाव होते हैं। कम किस बहिरंग निमित्तसे और अंतरऊ अगुरुलघु गुणके निमित्तसे तथा अनेक अविभाग प्रतिच्छेदों की होनाधिकता से कौन स्वभाव उत्पन्न होते हैं और कौन नष्ट होते हैं तथा कौन स्थिर रहते है, इस जैनसिद्धांतको स्याद्वादी ही समझ सकता है, अन्य जन इसके मर्मको नहीं पहुंच पाते हैं ।
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शायिकदर्शनं सावन्मुक्तेर्हेतुस्तवो हेत्वन्तरं विशिष्टं ज्ञानं चारित्रं च तदुन्मुक्तरूपेण तस्य नाशे तद्युक्तरूपेण जन्मनि क्षायिकत्वेन स्थाने त्रिलक्षणत्वं मवत्येव तथा क्षायिकदज्ञानद्वयस्य मुक्तिहेतो दर्शनशान चारित्रत्रयस्य वा हेत्वन्तरं चारित्रमपातित्रयनिर्जराकारी क्रियाविशेषः कालादिविशेषय, तेनोन्मुक्तया प्राक्तन्या युक्तरूपया चोत्तश्या नाशे जन्मनि च क्षायिकत्वेन स्थाने वा तस्य त्रिलक्षणत्वमनेन व्याख्यातमिति क्षायिको भावस्त्रिलक्षणः सिद्धः ।
उन तीनों रनोंमें दर्शनमोहनीयके क्षयसे उत्पन्न हुआ पहिला क्षायिकसम्यग्दर्शन तो मुक्ति का कारण है । उससे अतिरिक्त मुक्तिके दूसरे कारण पूर्णज्ञान और यथाख्यात चारित्र है। अकेके क्षायिक सम्यग्दर्शन के अनन्तर यदि ज्ञान और चारित्र उत्पन्न हुए, तब उस सम्यग्दर्शन गुणका
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