Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तवाचिन्तामणिः
हो रहे दर्शन ज्ञानरूप परिणामका ध्वंस हो गया है। और चारित्र से सहित होरहे ज्ञान, दर्शन पर्यायोंकी उत्पत्ति हो गयी है । इस कारण एक समय भी उन तीनों गुणोंका विद्यमान रहना संभव है । अतः पूर्वके लाभ होनेपर उचरकी सत्ताका विकल्प होना रूप अखण्ड सिद्धांत सिद्ध हुआ ।
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दर्शनपरिणामपरिणती ह्यात्मा दर्शनम्, तदुपादानं विशिष्टज्ञानपरिणामस्य निष्पत्तेः पर्यायमात्रस्य निरन्वयस्य जीवादिद्रव्यमात्रस्य च सर्वथोपादानत्वायोगात् कूर्मरोमादिवत् ।
आत्मद्रव्यकी सम्यग्दर्शन होना एक अभिन्न परिणति है । उस परिणति से परिणमन करता हुआ आत्मा ही सम्यग्दर्शन कहा जाता है। वह सम्यग्दर्शन तो आत्मा के सम्यग्दर्शन विशिष्ट सम्यज्ञानरूपं परिणामकी उत्पत्तिका उपादान कारण है । जैसे कुशूल अवस्थासे युक्त मिट्टी ही घटका उपादान कारण है। बिना अन्येता द्रव्यके केवल पूर्ववर्ती पर्याय उत्तर पर्यायका उपादान नहीं हो पाती है और पर्याय कल्पित किया गया अकेला जीवद्रव्य भी ज्ञान, दर्शन, आदिका सर्व प्रकार से उपादान कारण नहीं है। ऐसे केवल कुशूल पर्याय या अकेली मिट्टी को घटके उपादानकारण हो जानेका योग नहीं है । किंतु कुशूल अवस्था से सहित हो रही मिट्टी उपादान कारण है । जैसे कटुके बाल, आकाशका फूल आदि भसत् पदार्थ हैं, वैसे ही बौद्धोंकी मानी हुबी द्रव्यरहित पूर्वं उत्तर पर्याये और सांख्योंका माना हुआ पर्यायोंसे रहित आत्मद्रव्य भी असत् पदार्थ है, कोई वस्तुभूत नहीं है ।
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तत्र नश्यत्येव दर्शनपरिणामे विशिष्टज्ञानात्मतयात्मा परिणमते, विशिष्टज्ञानासहचा रितेन रूपेण दर्शनस्य विनाशात्तत्सहचरितेन रूपेणोत्पादात्, अन्यथा विशिष्टज्ञान सहच - रिवरूपतयोत्पत्तिविरोधात् पूर्ववत् ।
इस प्रकरणमें यह कहना है कि पहिली रिक्त दर्शन पर्यायके नाश होजानेपर ही सम्यक्त्व करके विशिष्ट होरहे ज्ञानस्वरूप से आत्मा परिणमन करता है। पूर्ण श्रुतज्ञान या केवलज्ञानके उत्पन्न होनेके पहिले सम्यग्दर्शन गुण अकेला था। विशिष्ट ज्ञान होजानेपर तो विशिष्ट ज्ञानके साथ न रद्दनेवाके स्वरूप करके, सम्यग्दर्शनका नाश होजाता है और विशिष्ट ज्ञानके साथ रहनेवाले स्वभाव करके दर्शनका उत्पाद होजाता है । अन्यथा यानी यदि पहिले असहचारीरूप से दर्शनका नाश न होगया होता तो विशिष्ट ज्ञानके सहचारीपन स्वभाव करके दर्शनकी उत्पत्ति होनेका विरोध होजाता । जैसे कि विशिष्टज्ञान उत्पन्न होनेके पहिले दर्शनगुणकी असंख्य पर्यायें ज्ञानसे असहचरपने करके उत्पन्न हो चुकीं हैं। यदि साथ न रहनेपनका नाश न मानाजावे तो पूर्वकीसी दर्शनकी ज्ञानरहित परिणतियां दी होती रहेंगी । ज्ञानसहित परिणति होजाने का अवसर न मिढ़ेगा। एक समय सहचरित और असहचरितपने से परिणतियां हो नहीं सकतीं। क्योंकि विरोध दोष है।
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