Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वाचिन्तामणिः ..........---- .. ... ___ न हि तद्भावमावितायां दृष्टायामपि कस्यचित्तदुपादेयता नास्तीति युक्तम् , कटादिवत् सर्वस्यापि वीरणाधुपादेयत्वाभावानुभक्तेः न चोपादेयसम्भूतिरुपादानास्तिता न गमयति । कटादिसम्भूवेर्वीरणाधस्तित्वस्यागतिप्रसंगात, येनोचरस्योपादेयस्य कामे पूर्वलाभो नियसो न भवेत् ।
उसके होनेपर होनापनको देखते सन्ते भी किसीको उसकी उपादेयता नहीं है, यह नहीं कहना चाहिये । अन्यथा घटाई, कपडा आदिके समान सर्व ही पदार्थोंको उशीर, तृण, तन्तु आदिके द्वारा उपादेयपनेके अभावका भी प्रसंग हो जावेगा। मावार्थ-घटाई आदिके उपादान कारण अब तृण, पटेरे आदि न हो सकेंगे और ऐसे ही गृह बनाने ईट, चूना और लड्डू बनानेमें बेसन, पी आदि उपादान कारण न हो सकेंगे। उपादेय कार्यकी उत्पत्ति हो जाना पूर्वकालके उपादान कारणको मस्तिताको नहीं समझाती है, यह नहीं कह बैठना अर्थात कार्यले उपादान कारणका ज्ञान हो ही जाता है। यदि ऐसा न माना जावेगा तो चटाई, कुण्डल, मादिकी उत्सचिसे सिनका, सुवर्ण, आदि उपादान कारणोंक अस्तित्वका ज्ञान नहीं होना चाहिये था। यह अनिष्ट प्रसंग पडेगा। किन्तु ज्ञान हो ही जाता है, जिससे कि उत्तरवर्ती उपोदयके लाभ हो जानेपर पूर्ववर्ती उपादानका लाभ हो चुकना नियत न होता अर्थात् उपादेयाका काम हो जानेपर उपादानका लाभ नियत है । उक्त नियति करनेसे हमारा पहिला नियम करनेका सिद्धांत न बने, सो नहीं है। अर्थात् पूर्वका काम होनेपर उत्तरवर्ती भजनीय है।
तत एवोपादानस्य लामे नोचरस्य नियतो लामा, कारणानामवश्यं कार्यवत्वाभावात् , समर्थस्य कारणस्य कार्यत्वमेवेति चेन्न, तस्येहाविवक्षितत्वात् । तद्विवक्षायां तु पूर्वस्य लाभे नोत्तरं मजनीयमुच्यते स्वयमविरोधात् ।
इस पूर्व उत्तरवर्ती गुणोंका उपादान उपादेयभाव होजानेसे ही उपादान के लाम होजानेपर उत्तरवर्ती उपादेयका लाभ होजाना नियत नहीं है। क्योंकि कारणोंको आवश्यकरूपसे कार्यसहित पनेका अभाव है। भावार्भ-कार्य तो कारणोंसे युक्त अवश्य होते ही हैं। किंतु संपूर्ण ही कारण अपने कार्योको उत्पन्न कर ही देवे, ऐसा नियम नहीं है। सामग्री के न मिलनेसे अनेक कारण कार्योंको विना उत्पन्न किये हुए ही यों ही पड़े रहते हैं । मतः पहिले गुणके होनेपर उच्चरवर्ती कार्य हो ही, ऐसा नियय नहीं है, तथा च उत्तरवर्तीगुण विकल्पनीय है। यदि यहां कोई यो को कि सामग्रीसे युक्त होरहा समर्थ कारण तो अवश्य ही कार्यवाला है। क्योंकि प्रतिबन्धकोंके अमावसे और संपूर्ण कारणपरिकरोंसे सहित समर्थ कारण अवश्य ही उत्तरक्षणमे, कार्योंको पैदा करता है । तब तो पूर्व गुणकी मी उत्तरगुपके साथ समन्याप्ति बन आती है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना सो ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकरण में इस समर्ष कारणकी विवक्षा नहीं की