Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
है । अतः उपादानके साथ उस कार्यको करनेका मणा होनेसे ही वह हमार जागा है। किंतु उपादान कारणका उपकार करनेवालेको हम फिर सहकारी कारण नहीं कहते हैं। वह उपादानका कारण तो कारणका कारण है । इस कारण कार्यका प्रतिकूल नहीं है । अतः अनुकूल कारण माना जाता है । असाधारण कारण नहीं है । ऐसा कहनेपर तब तो हमारा जैन सिद्धांत ही आ जाता है कि कार्यका सहकारी कारणसे बनाये जाने योग्यरूप स्वभाव न्यारा है और उपादान कारमसे साधा गया कार्यका स्वमाव निराला है। इस प्रकार अनेक कारणोंसे बना हुआ कार्य अनेक स्वभाववाला ही प्रसिद्ध है। एक स्वमाववाला नहीं है, जिससे कि हमारा कारणभेद हेतु व्यभिचारी हो जानेसे दर्शन, ज्ञान, चारित्रों या इसी प्रकार क्षमा, ब्रह्मचर्य, मार्दव, आदिके स्वभावभेदोंको सिद्ध न कर पाना । भावार्थ—कारणमेद हेतु अव्यभिचारी है । वह स्वभावमेदको सिद्ध कर ही देता है । विशेष यह है कि जो कार्यरूप परिणममा है, उसको उपादान कहते हैं, जैसे रोटी पनानेमें चून । और जो उपादानके साथ रहकर कार्य करनेमें सहायक होता है, वह सहकारी कारण है। जैसे कि रोटी बनाने चकला, बेलना । दूसरे प्रकारका सहकारी कारण यह भी होता है, जो कि साक्षात् कार्य करने सो सहायता न करे, किंतु कारणोंका कार्य करानेमें प्रयोजक हो जावे। जैसे कि एक मनुष्यसे रस्सीके द्वारा कुंएमेसे घड़ा नहीं खिंचता है। दूसरे मनुष्यने आकर साथ लेजुको तो नहीं खींचा किंतु लेजु पकरे हुए उस मनुष्यको खींच लिया। ऐसी दशामें दूसरा मेरक मनुष्य भी सहकारी कारण माना जा सकता है। और भी कतिपय प्रकारके सहकारी कारण होते हैं। जैसे घडेके बनानेमें बुलाल कर्तारूपसे, दण्ड चाकको घुमानेसे, और चाक मिट्टीका गोल आकार करानेसे तथा डोरा घडेसे लगी हुयी नीचेकी मिट्टीको काटनेसे, सहकारी हैं और ठण्डा पानी पीने वालोंका पुण्य या घडे के नीचे दब पिचकर हानि उठानेवाले जीवोंका पाप भी अप्राप्यकारी होकर पट बनानेमें सहकारी हैं।
तेषां पूर्वस्य लाभेऽपि भाज्यत्वादुत्तरस्य च।
नैकान्तेनेकता युक्ता हर्षामर्षादिभेदवत् ॥ ६६ ॥
दर्शन, ज्ञान और चारित्रको भिन्न सिद्ध करने में यह भी एक ज्ञापक हेत है कि उन दर्शन आदि गुणोंके पूर्ववर्ती गुणका लाम हो जानेपर भी उसका उत्तरवर्तीगुण भाज्य होता है अर्थात् सम्यादर्शन होवे तो पूर्ण सम्यान्नान होवे मी और न भी होवे। कुछ नियम नहीं। एवं दर्शन और ज्ञानक होते हुए भी पूर्णचारित्र होवे न भी होवे, यह भी भजनीय है। यदि एकान्त पनेसे तीनोंको एक माना जावेगा तो यह भजनीयपना युक्त न होगा। अतः हर्ष, क्रोध, पण्डिवाई बल आदि परिणतियोंके भेदके समान दर्शन आदिक भी मेद है । एकान्तसे अभेद नहीं है।