Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थं चिन्तामणिः
अर्थ माने गये सपनेको मध्यमें डालकर मोक्षमार्ग शहूका समास करना प्रशस्त नहीं है । क्योंकि रत्नत्रय स्वयं प्रधान होकर मोक्षका मार्ग है और इसके उपद्रवरहितपनेका अल्प सादृश्य लेकर नगरके मार्ग भी उपमानसे मार्ग मान लिये जाते हैं । वास्तव में यही मार्ग आदरणीय है । उपमान है । शेष सडक गली आदि मार्ग तो इस महान् रत्नत्रयके कुछ समान होनेसे उपमेय हैं
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तत्र भेदविवक्षायां स्वविवर्तविवर्तिनोः ।
दर्शनं ज्ञानमित्येषः शङ्खः करणसाधनः ॥ ६ ॥ पुंसो विवर्तमानस्य श्रद्धानज्ञानकर्मणा । स्वयं तच्छक्तिभेदस्य साविध्येन प्रवर्तनात् ॥ ७ ॥ करणत्वं न बाध्येत वन्हेर्दहनकर्मणा । स्वयं विवर्तमानस्य दाहशक्तिविशेषवत् ॥ ८ ॥
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उन तीनों रत्नस्वरूप मोक्षमार्ग में दर्शन और ज्ञान ये शब्द तो " दृशिर प्रेक्षणे " और ज्ञा अवबोधने " इन धातुओंसे साधकतम करण अर्थको सामनेवाले युद् प्रत्यय करके बनाये
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गये हैं । दृष्टा और ज्ञाता आत्मा परिणामी है और उसके निष् परिणाम दर्शन और ज्ञान हैं। परिणाम से परिणाम सर्वथा भिन्न नहीं है, फिर भी कथञ्चित् मित्र हैं । इस कारण अपने परिणाम और परिणामी में मेदकी विवक्षा होनेपर ज्ञाता, दृष्टा, आत्मा के दर्शन और ज्ञान करण हो जाते हैं । श्रद्धान और जानना रूप क्रियासे जब आत्मा स्वयं परिणमन कर रहा है, उस समय उस आत्माकी कथञ्चित् मित्र मानी गयी वह दर्शनशक्ति और ज्ञानशक्ति उस कर्ता आत्माकी सहकारिणी होकर प्रवर्तती है। जैसे ईधनको जलानेवाली अभिकी दहनशक्तिको दाहक्रियाका करणपना बाधित नहीं है । क्योंकि स्वयं दाइक्रियासे परिणमन करने वाली अमिका विशेष गुण वह दाहक शक्ति सहकारी कारण हो रही है। वैसे ही स्वयं परिणमन कर रहे आत्मारूपी कर्त्तासे ज्ञानको और दर्शनको कथस्वित् मेदकी विवक्षा होनेपर करणपना सिद्ध हो जाता है। लोकम भी देखा गया है कि अपनी शाखाओं के बोझसे वृक्ष टूटता है । अपनी गरमीसे मैथीका शाफ अपने आप झुलस जाता है ।
यथा वन्हेर्दहनक्रियया परिणामतः स्वयं दहनशक्तिविशेषस्य तत्साविध्येन वर्तमा नस्य साधकतमत्वात् करणत्वं न बाध्यते, तथात्मनः श्रद्धानज्ञानक्रियया स्वयं परिणमतः सावियेन वर्तमानस्य श्रद्धानज्ञानशक्तिविशेषस्यापि साधकतमत्वाविशेषात् ततो दर्शनादिपदेषु व्याख्यातार्थेषु दर्शनं ज्ञानमित्येषस्तावच्छ्रद्धः करणसाधनोऽवगम्यते ।
जैसे दाइक्रियासे परिणमन करती हुयी अभिकी विशेष दाहकत्वशक्ति स्वयं उस अभिकी सहायक होकर वर्तरही है, उस दाहकशक्तिको दशक्रिया करने में प्रकर्षता करके कारण होजाने से 66