Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिम्सामणिः
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उस चारित्रसे पहिले कहा जावेगा । इस प्रकार सूत्रमे परिपूर्णताकी अपेक्षासे उत्पन्न हुए दर्शन, ज्ञान और चारित्रके प्रयोग करनेका क्रम सर्वथा दोषोंसे रहित है।
प्रत्येकं सम्यागितलाई परिसमाप्यते । दर्शनादिषु निःशेषविपर्यासनिवृत्तये ॥ ३६ ॥
द्वंद्व समासके आदिमें या अन्तर्भ अन्य कर्मधारय या बहुत्रीहि तथा तत्पुरुष समासोंके द्वारा मिलाये गये पदोंका द्वन्धटित सर्व ही पदोंके साथ अन्वय हो जाता है। इस सूत्रमें भी दर्शन, ज्ञान और चारित्रका द्वन्द्व समास कर पुनः सम्यक् शब्दके साथ य स ( कर्मधारय समास ) किया गया है। अतः सम्यग् इस पदको प्रत्येक दर्शन ज्ञान और चारित्र पदों में परिपूर्ण रूपसे जोडदेना पाहिये । जिस सम्यक्पद लगानेका यह प्रयोजन है कि उससे संपूर्ण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान,
और मिथ्याचारित्रकी निवृत्ति हो जावें । अतः अतिव्याप्ति दोषको दूर करनेके लिये सम्यक्षद अखण्ड रूपसे तीनों में अन्वित करदिया जाता है ।
सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यञ्चारित्रमिति प्रत्येकपरिसमाया सम्यगिति पदं सम्भध्यते, प्रत्येक दर्शनादिषु निशेिषविर्यासनिवृत्यर्थत्वात्तस्थ । तत्र दर्शने विपयार्समौढ्यादयो मिथ्यात्वमेदाः शंकादयश्चातीचारा वक्ष्यमाणाः, संज्ञान संशयादयः, सच्चारित्रे मायादया, प्रतिचारित्रविशेषमतीचाराश्च यथासम्भक्निः प्रत्येयाः, तेषु सत्सु दर्शनादीनां सम्यक्त्वानुपपत्तेः।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इस प्रकार प्रत्येक रखने परिपूर्णरूपसे समातिकर सम्यक् यह पद जोड दिया जाता है । उसका प्रयोजन यह है कि प्रत्येक दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें सम्पूर्ण विपरीतताओंकी निवृत्ति हो जावे अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिध्याचारित्र ये तीनों रत्न न बन जावें । उन तीनों में विपरीतपना इस प्रकार है। प्रथम दर्शनमें तो विपरीतपना यों है कि कुदेव आदिमें देव गुरुपनेकी मूढता करना। ज्ञान, कुल, पूआ आदिका गर्व करना, और एकांत, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान ये पांच प्रकार मिथ्याध्यवसाय करना तथा आगे सातमें अभ्यायमें कहे जाने वाले शंका, काडा आदि अतीचार ये सब दर्शनके दोष हैं और मिथ्या है । अतः सम्यग्दर्शन के सम्यक्पदसे इनका धारण हो जाता है । तथा सम्यग्ज्ञानमें समीचीन पदके लगानेसे संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय या विभंग और कुमति, कुश्रुत रूप प्रमाणाभासकी ज्यावृत्ति हो जाती है। एवं समीचीन चारित्री अनंतानुबंधी के उदयपर होनेवाले मायाचार, क्रोध, ईर्ष्या, आत्मस्थररूपमें चर्या न होना आदि विपर्यास हो सकते थे | तथा प्रत्येक देशचारित्र, सकलचारित्र, अहिंसा महावत, सामायिक आदि विशेष चारित्रों में यथायोग्य होने