Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्यार्थचिन्तामणिः
मोक्षके असाधारण कारणका सूत्रमै निरूपण किया है। इस ही कारणसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही मोक्षमार्ग है इस प्रकार पहिला ही एवकाररूप अवधारण करना चाहिये । अन्यथा यानी पहिला अवधारण किये विना रस्तत्रयमें वद् विशेष कारणपना नहीं घटेगा । जैसे उपयोग जीवका असाधारण लक्षण है, बदां उपयोग ही जीवका लक्षण है, इस प्रकार पहिला अवधारण करनेसे तो लक्षण असाधारणपना प्रतीत होता है। दूसरे प्रकारसे नहीं। वे तीनों मोक्षमार्ग ही है। इस प्रकार दूसरा अवधारण तो नहीं करना चाहिये । क्योंकि ऐसा करनेपर तो उनको स्वर्ग भोगभूमि, अदिके लौकिक सुखोंके मार्गपनेका विशेष हो जावेगा । भावार्थ -- स्वर्ग, मैवेयक भादि तो अपरिपूर्ण रत्नत्रयोंसे प्राप्त हो जाते हैं। यहां कोई प्रतिवादी इस प्रकार नहीं कह सकता है कि वे रनम स्वर्ग-कक्ष्मी या सर्वार्थसिद्धि विमान प्राप्तिके मार्ग नहीं है। क्योंकि सम्यग्दर्शन भादिसे स्वर्ग, नक अनुदिशमादिकी - प्राति होना शास्त्रों में सुना गया है। जिन्होंने सम्यग्दर्शन होने के प्रथम मनुष्यायु या तिर्यगायुको बांधलिया है, वे जीव मी सम्पदर्शन के प्रताप से मोगमूमियोंमें मनुष्य और निर्म होकर अनेक प्रकार के सुखोंको भोगते हैं। और जिन जीवोंके देवायुके व्यतिरिक्त शेष तीन आयुओंका गन्ध नहीं हुआ है या किसी भी आयुका पन्ष नहीं हुआ है, वे देशनत और महामोको धारणकर कल्पवासी देव मा मैवेयक व्यादिकों में महमिन्द्र पदको प्राप्त हुए प्रामानुयोग में सुने खाते हैं। गोम्मटसार कर्मकाण्ड और तत्त्वार्थशास्त्र भी इसी सिद्धान्तको प्रतिपादन करते हैं। यदि यहाँ फिर कोई बह कई कि तीनों रत्न जिस समय अपनी परिपूर्ण उत्कर्ष अवस्थाको प्राप्त हो जावेगे, सब तो वे स्वर्गके मार्ग नहीं है, किन्तु मोक्षके ही मार्ग है। अतः दूसरा विधेय दके साम अवधारण करना भी बन सकता है। तब ऐसा कहनेपर तो अत्तिसे सिद्ध हो गया कि अबतक वे परिपूर्ण अवस्थाको प्राप्त नहीं है, जघन्य या मध्यम विशुद्धिको लिये हुए निम्न श्रेणीके हैं, तब तो उनको स्वर्ग, अनुदिश आदिका मार्गपना प्रसिद्ध है। इस कारण उत्तरवर्ती दूसरा अवधारण करना म्याक्से उचित नहीं है हि कमन व्यवहार नक्की अपेक्षा है । हो, निश्वनयकी अपेक्षासे तो दोनों ओरसे एवकार लगाना हमको मभीष्ट ही है । परिपूर्ण रत्नयही मोक्षमार्ग है । रस्नत्रय मोक्षमार्ग दी है। स्वर्ग आदिकका कारण नहीं है। चोदने गुणस्थानके अन्य समयमै परमावगाढ सम्मम्दर्शन, केवलज्ञान और आनुषंगिक दोनोंसे दिव ध्युपरत क्रियानिवृति-ध्यानरूप चारित्र इन तीन अवयव वाले सम्बग्दर्शन यादि जनको मोक्षमार्गपना सिद्ध है । चौदहवेंके अंतसमयवर्ती रत्नत्रय को अव्यवहित उत्तरवर्ती फरक मोक्ष उत्पन्न कराने की शक्ति है ही । अतः दोनों ओरसे पत्रकार लगाता है। हां, दूसरे अपरिपूर्ण रत्नत्रय यो मोक्षको न उत्पन्न कर स्वर्ग आदिक के मार्ग हैं। वे अनुकूल कारण है। समर्थ कारण नहीं है। से कि याकको मामेवा कुम्हारके हाथमें लगे हुए बाको बटकार्यके प्रति फलोपधानरूप समर्थ
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