Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ चिन्तामणिः
दो । किंतु जो शब्द अनादिसे उस उस अर्षके वाचक स्वाभाविक योग्यतासे चले आ रहे हैं, उन शब्दोंकी वाचकशक्ति वाच्य भके स्वाभाविक परिणामोपर निर्भर है।
जल यह एकरस संख्यासे युक्त शब्द है और आप यह बहुत्व संख्यासे सहित शह है। भिन्न भिन्न संख्यावाले दोनों शह एक ही पानीस्वरूप द्रपके वाचक हैं। यधपि पानी द्रव्य एक है। किन्तु उस पानी में एक पिण्ड और नाना अवयवरूप पर्याय निराकी हैं। यों पर्याय दृष्टिसे पानीम भेदका होना बाधाओंसे रहित है । शद्वनय अनुसार भेदका कोई बात नहीं कर सकता है। जहां पानी के एक अखण्ड द्रव्यकी विवक्षा है, वहां एकवचनान्त जल शब्दका प्रयोग होगा और जब पानीके अनेक टुकहोंकी विवक्षा है, वहां आपः शब्द बोला जावेगा। मतः एक द्रन्पो मी रहनेवाली शक्तियां पर्यायोंके भेदसे भिन्न भिन्न मानी जाती हैं। प्रकरणमे भी सम्यादर्शन और सम्यम्ज्ञान शब्द समास न करने पर एक धनान्त रहसे हैं। मान करनेपर द्विस्व संख्यासे युक्त " सम्यग्दर्शनज्ञाने " ऐसा शब्द बन जाता है। एक ही व्यक्तिको कहने वाले घट और कलश शब्दका समास करनेपर पटौ नहीं बनता है । मतः सिद्ध होता है कि संख्याभेद मी कश्चित् भेदका साधक है । सम्यादर्शनके निसगंज, अपिगमज या सराग, वीतराग तथा व्यवहार निश्चय करके दो भेद हैं । औपचरिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक करके सीन मी मेद है। आज्ञा आविसे दश भेद भी है । तथा सम्याज्ञान प्रत्यक्ष परोक्षके भेदसे दो हैं। मविधानादिसे पार है। उनमें मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस, शुतज्ञानके अंगोंकी अपेक्षा बारह और आवरणोंसे बीस भेद हैं। अवधिके तीन
और मनःपर्ययके दो भेद है। केवलज्ञान एक ही प्रकारका है। यह मी संख्यामेद है। स्पष्टास्पष्टप्रतिभासविषयस्य पादपस्पैकरवेऽपि तथानाचस्व पर्यायादिशामानात्वव्यवस्थितेः।
एक ही वृक्षको निकटसे देखा जाये तो वृक्षका स्पष्ट प्रतिभास हो जाता है । दूरवर्ती प्रदेशोंसे वृक्षको देखनेपर अस्पष्ट प्रतिभास होता है। यपि स्पा ज्ञान और अस्पष्ट ज्ञानका विषय पह यूक्ष एक ही है। फिर भी उस प्रकार विशद ज्ञान और अविशद शानके द्वारा जाननेकी योग्यता रूप ग्राह्यस्य पर्याय भिन्न हैं। इस कारण पर्यायाबिकनयके अनुसार कपन करनेसे नानापनकी म्यवस्था हो रही है । पत्येक पदार्थ विद्यमान प्रमेवस्व गुणके परिणाम भिन्न सामग्रीके मिलने पर अनेक अविभागप्रतिच्छेदोंको लिये हुए न्यारे न्यारे हो जाते हैं । ममिको भागमवाक्य द्वारा जाननेपर उसमें
आगमगम्यतारूप स्वभाव माना जाता है। धूम हेतुसे जाननेपर अमिम भनुमेयत्व धर्म है और प्रत्यक्षसे जाननेपर अमिमें प्रत्यक्षगोचरवस्वभाव है। यधपि क्षयोपशमके मेदसे ज्ञानों में भेद हो जाता है। फिर भी विषयों में स्वभावभेद मानना आवश्यक है। बिना स्वभावभेद माने भिन्न मिन्न कार्योके होनेका नियम कैसे किया जावे !। चुम्मको आकर्षण शक्ति है। किंतु इधर लोहमे आकर्ण्य शक्तिका मानना भी अनिवार्य है। चुम्बकपालाण तमी तो चांदी, सोना, मिट्टीको नहीं खींच सकता है और