Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
साक्षात्कार्यकारणभावोपलब्धेस्तत्त्वज्ञानाकिनःश्रेयसमित्य परैः प्रतिपादनात् ज्ञानेन चापवर्गइत्यन्यैरभिधानात् विद्यात एवाविद्यासंस्कारादिशानिर्वाणमितीतरैरभ्युपगमात् । फलोपभोगेन संचितकर्मणां प्रश्चयः सम्यग्ज्ञानस्य मुक्त्युत्पत्तौ सहकारी ज्ञानामात्रात्मकमोक्ष कारणवादिनामिष्टो न पुनरन्योऽसाधारणः कश्चित् स च फलोपभोगो यथाकालमुपक्रमविशेषाद्वा कर्मणां स्यात् ? न तावदाद्यः पक्ष इत्याह
तत्वज्ञान अव्यवहित पूर्ववर्ती होकर कारण है और मोक्ष कार्य है । किसी तप, दीक्षा, फायक्लेश आदिको सहकारी कारण माननेकी आवश्यकता नहीं है । तत्त्वज्ञान और मोक्षमे परम्पराके विना साक्षात् रूपसे कार्यकारणभाव देखा जाता है । अतः तत्त्वज्ञान से झट मोक्ष हो जाती है । इस प्रकार दूसरे मीमांसक प्रतिपादन करते हैं । तथा सांख्यका यह सिद्धांत है कि प्रकृति और पुरुषका भेद ज्ञान कर लेनारूप तत्त्वज्ञानसे मोक्ष प्राप्ति हो जाती है । इस प्रकार अन्य कापिलोके द्वारा कहा जाता है | तथा आत्म तत्वको वेद द्वारा सुनो, मनन करो, दृढ भावना करो, आत्मा ही परब्रह्म एक तत्र है । इस प्रकारकी विद्यासही भेदरूप अविधा के संस्कारोंका और मेरे तेरे आदि संकल्पों आदिका क्षय हो जानेसे परनामें लीन हो जानारूप मोक्ष हो जाती है । इस प्रकार निराले द्वैतवादी स्वीकार करते हैं । और बौद्ध लोग भी क्षणिक विज्ञानरूप या नैरात्म्य मानारूप विद्यासे ही अविद्या के संस्कार, तृष्णा, आदिके क्षय हो जानेसे ज्ञानसंतानका पहिली संतान से संबंध टूटकर आभवरहित हो जानारूप मोक्षको स्वीकार करते हैं.
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इस प्रकार ऊपर कड़े हुए अकेले ज्ञानस्वरूप मात्रको ही मोक्षका कारण कहनेवाले प्रतिवादियोंने मोक्षकी उत्पत्ति करनेमें सम्यग्ज्ञानका सहकारी कारण संचित कर्मोंका फल भोग करके क्षय हो जाना माना है। इसके अतिरिक्त कोई भी दूसरा फिर असाधारण कारण नहीं माना है । किन्हीं किन्हीं नैयायिक, वैशेषिक आदिने तो रात्रि कमोंके नाश करनेमें उन कमौके सुख दुःखरूप फलका भोगना अती आवश्यक बतलाया है । वे कहते हैं कि " नाभुक्तं शीयले कर्म कल्पकोटिशतैरपि "
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करोडों, अरबों, कल्पकालोंके बीत जाने पर भी बिना फल देकर कर्म आत्मासे झरते नहीं है । इस पर हमारा यह पूंछना है कि कर्मोंका वह फल भोगना क्या कर्मोके यथायोग्य ठीक ठीक समयमै उदय आनेपर फल भुगवाकर होगा ! या किसी तपस्था तथा समाधिके बलसे विशेष उप
म द्वारा अर्थात् भविष्य हजारों, लाखों वर्षों में उदय जाने वाले कमोंका थोडी देर में ही उदय लाकर उन कमका फल भोगा जा सकेगा ? बताओ। इन दो पक्षों में परिला आदिका पक्ष तो ठीक नहीं है | इस बात को आचार्य महाराज कहते हैं ।
भोक्तुः फलोपभोगो हि यथाकालं यदीष्यते । तदा कर्मक्षयः कातः कल्पकोटिशतैरपि ॥ ५१ ॥