Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वाचितामणिः .
वेदनीय इन तीन अघाती कोकी निर्भरा नहीं हो सकती थी। सिस कारण मोक्ष भी नहीं उस्पाम हो सकेगी। हां ! अधातियों में आयुःकर्मकी को अपने कामे फल देना रूप अनुमवसे ही निर्जरा होती है। किंतु फिर तीर्थकर हन्त देवके आम या पनसके समान आयुःकर्मको उपक्रम विधिसे पानी भविष्यमें आनेवाले निवेकोंको थोडे कालमें ही भोगने योग्य बनाकर आयुकी निर्जरा नहीं होती है। क्योंकि उनकी आयुःका समुद्रपात या शम्न आदिकसे अपवर्तन नहीं हो पाता है। सामान्य केवली, गुरुदत्त, पाण्डव आदिकी आयुःका अपवर्तन हो गया शास्त्रमे सुना है । अंतकृस्केवली अथवा समुद्र, मेरुगिरि शिखर, भोगभूमि, गंगा, आदिके ठीक ऊपर पैंतालीस लाख योजन के सिद्ध क्षेत्रमै वहां विराजमान सिद्ध भगवान्की पूर्वभवसंबंधी आयुःका प्रायः अपवर्तन हुआ. समझना चाहिये । गोम्मटसार कर्मकाण्डम आयुःका अपकर्मण विधान तेरहवे गुणस्थानके अंत समबतक कहा है । उदीरणा छटे तक होती है। श्रुतसागर स्वामीका मी यही सिद्धांत , है। उन कहे हुए आत्माके परिणामविशेषोंकी अपेक्षा रखनेवाका क्षायिक रलम्रय सयोग फेवली नामक तेरहवे गुपस्थानक पहिले समयमै मुक्तिको कथमपि प्राप्त नहीं करा पाला है । क्योंकि उस समय रलत्रयका सहकारी कारण वह आस्माकी शक्तिविशेष विद्यमान नहीं है । कारणकूट कार्यको करते हैं। सहकारियोंसे विकल होरहे कारण अव्यवहित उत्तरकालमें कार्यको उत्पन्न नहीं कर पाते हैं। . ..
क्षायिकत्वान्न सापेक्षमहद्रत्नत्रयं यदि । .:.::
किन्न क्षीणकषायस्य दृक्चारित्र तथा मते ॥ १४ ॥ - केवलापक्षिणी ते हि यथा तद्वच्च तत्त्रयम् ।
सहकारिव्यपेक्षं स्यात् क्षायिकत्वेनपेक्षिता ॥ ४५ ॥ ___कोई सकटाक्ष कह रहा है कि जो गुण कोके क्षयसे उत्पन्न होता है, वह अपने कार्यके करनेमें किसी अन्यकी अपेक्षा नहीं रखता है। अर्हन्त परमेष्ठीके तेरहवें गुणस्थानकी आदिमे उत्पन हुमा रत्नत्रय भी दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, और झानावरण कर्मके क्षयसे उत्पन्न हुआ है । अतः मोक्षकी उत्पत्ति करादेनेमें वह अन्यकी अपेक्षासे सहित नहीं है । आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो बारहवें क्षीण कषाय गुणस्थानके आदिमें उत्पन्न हुए क्षायिक सम्यक्स्य
और क्षायिकचारित्र ये दोनों ही उसी प्रकार मोक्षके उत्पादक क्यों नहीं माने जावें । जिस प्रकार आप यहां यही कह सकते हैं कि वे दोनों दर्शन और चारित्र तीसरे केवलज्ञानकी अपेक्षा रखनेवाले होकर तीनरूप हो जावेगे, तभी मुक्ति ( जीवन्मुक्ति ) को प्राप्त करा सकेमे, तक तो क्षायिक गुणोको भी अन्यकी अपेक्षा हुई । उसीके समान वह रलाय भी चतुर्थ शुक्लथ्यानरूप सहकारी फारषकी अपेक्षा रखता हुआ ही परममुक्तिका संपादन करा सकेगा। क्षायिकगुण किसीकी अपेक्षा नहीं रखते है। इसका अभिपाय यही है कि अपने स्वरूपको प्राप्त करानेमें वे गुण अन्य