Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न हो चुका है, किंतु क्षायिकसम्यक्व केवलज्ञानपूर्वक नहीं है, जिससे कि उस पूर्णदर्शनकी अपेक्षा से किया गया पूर्णज्ञान पूज्य समझा जावे। और दूसरा समाधान यहां यह समझना चाहिये कि सम्यग्दर्शन ही इस जीवके भविष्य अनंत भवोंके मूलसहित नाशका कारण है । एक बार सम्यग्दर्शन के हो जानेपर अधिक से अधिक अर्ध पुद्गल परिवर्तन कालमें अवश्य ही मोक्ष हो जाती है । अनंतानंत भव में परिभ्रमण करने की अपेक्षा थोडेसे अनंत असंख्यात संख्यात भवों में परावर्तन कर मोक्ष विराजमान कर देनेका श्रेय सम्यग्दर्शन गुणके ही माঈपर लगा हुआ है। इस सम्यग्दर्शन के बलपर और अनेक गुण भी आत्मार्गे व्यक्त हो जाते हैं। इस कारण सम्यग्दर्शन ही पूज्य है ।
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विशिष्टज्ञानतः पूर्वभावाच्चास्यास्तु पूर्ववाक् ।
तथैव ज्ञानशब्दस्य चारित्रात्प्राक् प्रवर्तनम् ॥ ३५ ॥
ज्ञानावरण कर्मके क्षय होजानेपर उत्पन्न हुए विलक्षण चमत्कारक क्षायिक ज्ञानसे पूर्व में रहने की अपेक्षासे इस सम्यग्दर्शनका सूत्रमै पहिले बोलना उचित है । तैसे ही आनुषंगिक दोषोंसे मी रहित होरहे परिपूर्ण चारित्र से ज्ञान शब्दका भी आदि सूत्र पहिले प्रयोग करने में प्रवर्तना समझलो !
यद्यत्कालतया व्यवस्थितं तत्तथैव प्रयोक्तव्यमार्षान्न्यायादिति क्षायिकज्ञानात्पूर्वकालवयावस्थितं दर्शनं पूर्वमुच्यते, चारित्राच समुच्छिन्नक्रियानिवर्तिध्यानलक्षणात् सकलकर्मक्षयनिबन्धनात्स सामग्री का प्राक्कालतयोद्भवत् सम्यग्ज्ञानं ततः पूर्वमिति निरवद्यो ' दर्शनादिप्रयोगक्रमः ।
जो जिस कालमें होता हुआ प्रामाणिक व्यवस्थासे सिद्ध दोरहा है, उसका उत्पत्तिके क्रमानुसार वैसे ही प्रयोग करना चाहिये । ऋषियों के सम्प्रदाय से ऐसा करना ही न्यायमार्ग है। इस कारण क्षायिक केवलज्ञानसे पूर्वकालने रहनेवाला सम्यग्दर्शन सिद्ध हो चुका है | अतः सूत्र दर्शन शब्द पहिले कहा जाता है और चारित्रसे पहिले ज्ञान शब्दका प्रयोग किया है । यद्यपि चारित्र मोहनीय कर्मका क्षय होजानेसे बारहवें गुणस्थान के आदि में ही क्षायिकचारित्र होगया है । किंतु मघातिया कर्मों के निमित्तसे चारित्रमे आनुषंगिक दोष आरहे हैं । केवलज्ञानमें अघातिया कर्मों के सन्निधानसे कोई दोष नहीं आते हैं । वह तेरहवेंके आदि में ही अक्षुण्ण परिपूर्ण है। मन, वचन, कायके योगोंकी क्रिया सर्वथा नष्ट हो जानेपर पीछे उत्पन्न हुआ आत्मनिष्ठारूप चौथे शुक ध्यानस्वरूप और सम्पूर्ण कमौके क्षयका कारण तथा केवलिमुद्धात के द्वारा तीन अघातिया कर्मो की आयु के बराबर अन्तर्मुहूर्त स्थिति कर चुकना आदि सामग्री से युक्त होरहे ऐसे चौदहवे गुणस्थानके अन्य समय में होनेवाले परिपूर्ण चारित्रसे बहुत काल पहिले उत्पन्न हो चुका परिपूर्ण सम्यग्ज्ञान