Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्साचिन्तामणिः
कि उस ही कारणसे क्षायिकसम्यक्त्वको पूज्यपना हो जाओ। क्योंकि मुक्तिमें भी वह विद्यमान है । क्षायिक सम्यग्दर्शनका मोक्ष अवस्था अनन्तकालतक ठहरे रहना सिद्ध है।
साधावान्तराभावहेतुत्वाभावादर्शनस्य केवलज्ञानादनम्पहें केवलस्याप्यम्यों माभूत तत एव। नहि तत्कालादिविशेषनिरपेक्ष भवान्तराभावकारणमयोगकेवलिचरमसमयमाप्तस्य दर्शनादित्रयस्य साक्षान्मोक्षकारणत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् । ततः साक्षात्परम्परया वा मोक्षकारपत्वापेक्षया दर्शनादित्रयस्याभ्यर्हितत्व समानमिति न तथा कस्यचिदेवाभ्यई व्यवस्थायेन ज्ञानमेवाभ्यहित स्थात् दर्शनात् ।
क्षामिक सम्यग्दर्शनको अन्ययहित उस ही भवसे जन्मांतर न लेनेकी मानी मोक्ष होनेकी कारणताका अभाव है । इस कारण केवलज्ञानसे सम्यग्दर्शन पूज्य नहीं हो सकता है, ऐसा कहनेपर तो उस ही कारणसे केवलज्ञानको भी पूज्यपना न होगा । भावार्थ-केवलज्ञान भी अव्यवहित उत्तर कालमें मोक्षका सम्पादक नहीं है। काल, पूर्णचारित्र, अपाहियोंका नाश आदि उन विशेष कारणोंकी नहीं अपेक्षा करता हुआ वह विचारा केवलज्ञान अन्य जन्म न लेना रूप मोक्षका कारण नहीं होपाता है। किंतु चौदहवे अयोग केवळी नामक गुणस्थानके अंतिमसमयमै प्राप्त हुए सम्पम्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों ही अव्यवहित उत्तरकालमें होनेवाली सिद्ध अवस्थारूप परम मुक्ति के साक्षात् कारण है। इस स्वरूप करके उक बासको हम अग्रिम ग्रंथम स्पष्ट रूपसे कहनेवाले हैं। उस कारण मोक्षके साक्षात् अर्थात् अम्पवहित कारण होजाने अथवा तीसरा, चौया शुक्लध्यान या अघाती कमोंका क्षय होनेको बीचमे डालकर परम्परासे कारणपनेकी अपेक्षासे दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों को पूज्यपना समान है । हायिक सम्यावर्शन चौधेसे लेकर सातवे तक किसी भी गुणस्थानमें उपजकर पूर्ण हो जाता है। ज्ञान तेरहवे गुणस्थानके आदि समयमै पूर्ण हो जाता है। और चारित्रगुण बारहवेकी मादिमें पूर्ण हो जाता है, किंतु मोक्ष होनेमें कमसे कम कई अंतहत और अधिकसे अधिक कुछ अंतर्मुहर्त अधिक आठ वर्ष कम एक कोटि पूर्व वर्ष अवशिष्ट बह जाते हैं। चौरासी लाख वर्षोंका एक पूर्वान होता है और चौरासी लाख पूर्वाङ्गोंका एक पूर्व है । ऐसे एक कोटि पूर्व वर्षोंकी आयु कर्मभूमिमें उत्कृष्ट मानी गयी है । आठ वर्षका मनुष्य मुनि व्रत लेकर कतिपय मंतइलाके पश्चात् फेवलज्ञान प्राप्त कर सकता है। अतः तीनों ही रत्नोंको अन्य विशेष कारणोंकी अपेक्षा रखते हुए ही मोक्षका कारणपन है। ऐसी दशाम उस प्रकार मोसके कारणपनकी अपेक्षासे तीनों मैसे किसी एकको ही पूज्यपनेकी म्यवस्था नहीं हो सकती है, जिससे कि ज्ञान ही दर्शनकी अपेक्षासे पूज्य माना जावे ।
' नन्वेवं विभिएसम्यग्ज्ञानहेतुत्वेनापि दर्शनस्प हानादभ्य सम्यग्दर्शनहेतुत्वेन ज्ञानस्य दर्षनादस्योस्तु श्रुवधानपूर्वकस्वादधिगमनसदनस्य, मत्यवधिज्ञानपूर्वकत्वाभिसर्गजस्पेति