Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
सत्यार्थचिन्तामणिः
इस प्रकरणमें यह बात विचार करने योग्य है कि आक्षेपकारने जो यह कहा था कि संपूर्ण पुरुषार्थीको सिद्धिका कारण ज्ञान है, भतः ज्ञान ही पूज्य होना चाहिये । वहां इम पूंछते है कि पाहे किसी भी ज्ञानसामान्पको कारण मान करके पुरुषार्थोकी सिद्धि हो जाती मानी गयी है ! भथवा संपूर्ण पुरुषायोंकी सिद्धिका कारण समीचीन ज्ञान है ! बताओ। इनमें पहिला पक्ष लेना तो अच्छा नहीं है, क्योंकि चाहे जिस ज्ञानसे पुरुषार्थोकी यदि सिदि हो आवेगी, तब तो संशय, विपर्यय और अनध्यवमायरूप कुजानोंसे भी धर्म भादिककी प्राप्ति हो जानी चाहिये । किन्तु संशय भादिकसे धर्म मोक्ष तो क्या अर्थ और कामकी भी थोडीसी प्राप्ति नहीं हो पाती है। यदि दूसरे पक्षके अनुसार धर्म आदिककी सिद्धि समीचीन ज्ञानको कारण मानोगे, तब तो ज्ञानकी समीचीनला का हेतु हो रहा तत्त्वार्थीका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन ही पूज्य हुआ । यदि वह सम्यग्दर्शन गुण प्रगट नहीं हुआ होता तो दूरभन्यके शानके समान निकट भव्यजीवके ज्ञानको मी समीचीनपना प्रकट नहीं हो सकता था। साध्य साधनकी समन्याप्तिवाले इस अनुमान दिया गया दूर भव्यरूप दृष्टांत विचारा साध्य और साधनसे रहित नहीं हैं। क्योंकि दूर भन्यमै सम्यादर्शनका अमाव है और उसके शानमें समीचीनपना मी नहीं है । इस कारण सम्यग्दर्शनका न होनारूप साधन तथा शानके समीचीनपनेके अभावरूप सामान दोनोंकी इस दृष्ट विदाकात हो रही है। मथवा दोनों वादी प्रतिवादियों के यहां साध्य और साधनको धारते हुये निदर्शन की पटिया पप्ति हो रही है ।
नन्विदमयुक्त तत्वार्यश्रद्धानस्य मानसम्यक्त्वहेतुत्वं दर्शनसम्यग्नानयो सहचरत्वात्, सव्येतरगोविषाणवतुहेतुमदावाघटनात् । तस्वार्थश्रद्धानस्याविभीवकाले सम्यग्ज्ञानस्याविर्भावाचसबेतुरिति चासंगतं, सम्यग्ज्ञानस्य तत्वार्यश्रद्धानहेतुत्वप्रसंगात् । मत्यादिसम्यशानस्याविर्भावकाल एव तत्त्वार्थश्रद्धानस्याविर्भावात् । ततो न दर्शनस्य सानादम्यहितवं शानसम्यक्त्वहेतुत्वाव्यवस्थितेरिति कश्चिन्, तदसत् , अभिहितानवयोधात् । न हि सम्यखानोसचिहेतुस्वादर्शनस्याम्यर्थोऽभिधीयते, किं वर्हि ? ज्ञानसम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात् , पूर्व हि दर्शनोत्पत्तेः साकारग्रहणस्य मिथ्याज्ञानव्यपदेशो मिथ्यात्वसहचरितत्वेन यथा, तथा दर्शनमोहोपशमादेर्शनोत्पत्तौ सम्यग्ज्ञानन्यपदेश इति । .
किसीकी निग्रहार्थ यहां शंका है कि सत्त्वार्थोके श्रद्धानस्वरूप सम्यग्दर्शनको ज्ञानकी समीचीनताका हेतुपना कहना, यह भयुक्त है। क्योंकि सम्पन्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों गुण एक साथ प्रगट होते हैं। एक साथ ही सदा रहते हैं। जैसे गौके एक समयमें उत्पन्न होनेवाले वाम और दक्षिण सींगों में कार्यकारणभाव नहीं घटता है, वैसे ही साथ उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन और सम्पज्ञानका कार्यकारणभाव नहीं घनसा है। पूर्वक्षणवर्ती कारण होता है और उसके अव्यवहित