Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थपिन्सामणिः
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वृक्षस्तिष्ठति कानने कुसुमिते वृक्ष लताः संश्रिताः । वृक्षेणामिहतो गजो निपतति वृक्षाय देहयञ्जलि ।। वृक्षादानय मन्जरी कुसुमितां वृक्षस्य शाखोमणा ।
वृक्षे नीडमिदं कृतं शकुनिना हे वृक्ष किं कम्पसे ॥१॥ बनमें एक वृक्ष है (कर्ण), वृक्षको लता माश्रय कर रही हैं (कर्म ), वृक्ष करके टकराया हुआ हाथी गिर पडा ( करण), वृक्ष के लिये पानी देदो ( संपदान ), वृक्षसे फूलोंको तोड़ लामो ( अपादान ), वृक्षकी शाखायें ऊंची है ( सम्बन्ध ), वृक्षों पक्षियोंने घोंसला बनाया है ( अधिकरण ), हे वृक्ष ! तुम क्यों कांप रहे हो ( सम्बोधन ) । इस उदाहरणमें वृक्षके अनेक स्वमावोंके वश छह कारक बन गये है। कहीं कहीं क्रियाका परम्परासंबंध होनेके कारण संबंध और सम्बोधनको मी उपचारसे कारकपना मान लिया गया है। मुख्य रूपसे छह कारक माने गये हैं।
निरंशएम ब वरवल्या सर्वथा गात्तितः ।
नैकस्य बाध्यतेऽनेककारकत्वं कथञ्चन ॥ ३२ ॥
एक बात यह भी है कि बौद्धोंसे माने हुए सर्वथा निरंश सत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकती है। अर्थात् सम्पूर्ण स्वमावोंसे रहित कोई पदार्थ ही संसारमै नहीं है। अनेक धर्मात्मक ही असरंग और बहिरंग पदार्थ जगत्में देखे जाते हैं। इस कारण एक द्रव्यको किसी किसी अपेक्षासे अनेक कारकपना बन जाता है । कोई बाधा नहीं है। चेतनश्चेतनं, चेतनेन, चेतनाव, चेतनाद, चेतने चेतयते । यह चेतन भाला, चेतनको, चेतन करके, चेतनके लिये, चेतनसे चेसनमै चेतता रहता है।
· नात्मादितरवे नानाकारकात्मता वास्तवी तस्य निरंशत्वात् , कल्पनामात्रादेवे तदुपपवेरिति न शंकनीयम् , पहिरन्तर्वा निरंशस्य सर्वथार्थक्रियाकारित्वायोगान् ।।
बौद्ध कहते हैं कि आत्मा, वृक्ष, आदि तत्त्वों में अनेक कारक स्वरूपपना वस्तुमूत नहीं है। क्योंकि वे भात्मा आदि पदार्थ सम्पूर्ण शक्ति, स्वमाव और घाँसे रहित होसे हुए निरंश हैं। केवल कल्पनासे भले ही वह अनेककारकपना सिद्ध करलो, जैसे कि एक रुपया देवदत्तका है किंतु वह बजाज, सर्राफ, और मृत्यका होजाता है। अतः रुपये मेरा तेरापन सर्वया कल्पनारूप है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार पौद्धोंको शङ्का नहीं करनी चाहिये । क्योंकि घट, रुपया, वृक्ष, आदि पहिरंग पदार्थ और ज्ञान, आत्मा, इच्छा आदि अन्तरंग पदार्थोंको यदि स्वभावोंसे रहित माना जावेगा तो सर्व ही प्रकारसे उनमें अर्थक्रियाको करनापन नहीं बन सकेगा । रुपयेमें भी हमारा भुम्हारापन स्वभाव विधमान है । तभी तो अपने रुपयेका स्वामित्व तो गुण है, और दूसरे की चोरी करना दोष है। हमारा रुपया हमारे लिये इष्ट बस्तुकी प्राति करानेवाला है, अन्यथा दूसरे सेठके