Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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खाता है और कभी वही देवदत्त सुंदर रोटीसे थोडे स्वादवाली अधिक दालको निबटा लेता है । या विचारावे तो भक्षण ही भक्षणको करता है। पूर्व दिनका स्वाया हुआ अन्न पिचामि और कार रूप परिणत हो चुका है । की जानेसे आग राजा है।प्रयत्न करने पर भी खाया नहीं जाता है। विशेष प्यास लगने पर एक विपलमें लोटाभर पानी खाली कर दिया जाता है। किंतु ध्यास न लगने पर एक कटोरा पानी पेटमें पहुंचाना बहुत दृढ में वाहरसे सेना पहुंचाने के समान दुस्साध्य हो जाता है । विद्यार्थी पढता है और विद्यार्थीको पढना पडता है, इत्यादि अनेक दृष्टांतोंसे कारककी प्रवृत्ति होना विवक्षाके अधीन सिद्ध होती है और चतुर यताकी इच्छा भी पदार्थोंकी विशेष परिणतियोंके आश्रय पर हुयी है । यों ही अंटसेंट नहीं उपज गयी है । पदार्थोंकी मूलभूत सामर्थ्य के विना नैमित्तिक परिणति नहीं हो पाती है ।
कुतः पुनः कस्येति कारकमा वसति विवक्षा कस्यचिदविवक्षेति चेत्---
फिर आप चैन लोग यह और बतलादीजिये कि किसकी विवक्षा किस कारण से किस कारकपर आरूढ हो जाती है और किस धर्मकी अविवक्षा किससे कब कहां हो जाती है ! ऐसा प्रश्न हो जानेपर आचार्य महाराज उत्तर देते हैं
विवक्षा च प्रधानत्वाद्वस्तुरूपस्य कस्यचित् । तदा तदन्यरूपस्याविवक्षा गुणभावतः ॥ २६ ॥
वस्तु अनेक स्वभाव विद्यमान हैं, जिस समय वस्तुके प्रधान होनेके कारण किसी भी एक स्वरूपकी विवक्षा होती है, उस समय वस्तुके अन्य वर्माकी गौणरूप होजाने के कारण अविवक्षा दोजाती है । भावार्थ- जैसे पुष्प आदि सुगंधित द्रव्यमें गंध गुणकी प्रधानता है। शेष रूप, रस आदिककी अप्रधानता है । इसी प्रकार अस्तित्व धर्मकी विवक्षा होनेपर नास्तित्व आदि धर्म अविवक्षिप्त होजाते हैं और नास्तित्वकी विवक्षा होनेपर अस्तित्व गौण होजाता है। कारकपक्ष और व्यवहारके शापकपक्ष दोनों में वस्तुके स्वभावभूत धर्म कारण होते हैं । वस्तुके सामर्थ्यरूप स्वभावोंसे ही अर्थक्रियायें होती है । यह कार्यकारणभाव है और उन स्वभावका अवलम्ब लेकर ही व्यवहार किया जाता है, यह ज्ञाप्यज्ञापकभाव है ।
नन्वसदेव रूपमनाद्यविद्यावासनोपकल्पितं विवक्षेतरयोर्विषयो न तु वास्तवं रूपं यतः परमार्थसती षट्कारकी स्यादिति चेत् ।
यहां बौद्धोंकी शंका है कि वस्तुमे अनेक धर्म नहीं हैं । स्वभावोंसे रहित होकर वस्तु स्वयं निर्विकल्पक है। आप जैनोने जो धर्म विवक्षा और उससे न्यारी अविवक्षा के विषय माने हैं वे वस्तुके स्वरूप नहीं है। केवल अनादि कालसे गोहुयी मिथ्या सरूप वासनाओंसे कल्पित किये गये