Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
मनमें राजापनकी कल्पना करने से कोई यथार्थ राजा नहीं बन जाता है अथवा क्योंके खेल अनुसारं, या सतरंजी गोटों सदृश कोई मंत्री, घोडा आदि नहीं निर्णीत किया जाता है | स्वप्न, नशा आदिमें भी व्यर्थ कल्पनायें उपजती है । उस कारण इष्ट अर्थकी अच्छी प्राप्ति करना और अनिष्टकी अप्राप्ति करना भी वास्तविक नहीं है, जिससे कि उन प्राप्ति तथा अमाप्तिको प्रधानपना और अप्रधानपनेका हेतु मानकर वस्तुओंकी सामर्थ्यसे उत्पन्न हुआ प्रधानता और अप्रधानताका डील सिद्ध होता संता उनको वस्तुभूतपना सिद्ध करा देवे । यदि ऐसा कहोगे तो आचार्य कहते हैं कि बौद्धोंकी इस प्रकार शंका तब हो सकती थी, जब कि सम्पूर्ण ही अभीष्ट अर्थ अवस्तुभूत होते हुए सिद्ध हो जाते। किंतु अभीष्ट पदार्थों में बहुभाग वस्तुभूत सिद्ध हो रहा है। दूधमें स्वादु रस, अंमिमें दाइकस्वभाव, विषमें मारनेकी शक्ति, अध्यापकमें पढानेकी सामर्थ्य इत्यादि धर्म कल्पित नहीं हैं। किसी एकके मनमें राजा बन जाना या स्वममें राज्य प्राप्ति होना सीपमें रजतका ज्ञान हो जाना आदि कल्पनामको अपरमार्थभूत असत् अर्धकी भित्ति पर अवलम्बित समझ कर उसी प्रतिपत्ति के अनुसार यदि बाधारहित इच्छाओंके विषय किये गये परमार्थभूत पदायों को मी असद्भूत असतूरूपपनेकी सिद्धि करोगे, तब तो आंख अंगुली लगाके देखनेपर एक चंद्रमा दो चंद्रमाको विषय करनेवाले प्रत्यक्षको अवस्तुके विषय करनेवाला ऐसा समीचीन निर्णय हो जाने अनुसार ही सम्पूर्ण निर्वाध प्रत्यक्षोंके विषयभूत पदार्थों को भी अवस्तुपना सिद्ध कर डालो। क्योंकि मनमें राजाकी कल्पनाको दृष्टांत मानकर अभिप्रेतपना हेतु जैसे सम्पूर्ण वस्तुभूत कल्पनाओं में रह जाता है, वैसे ही चंद्रद्रय दर्शनको उदाहरण मानकर सम्पूर्ण निर्वाध प्रत्यक्षोंके विषयों में दृष्टपन हेतु भी अंतररहित विद्यमान है । दूधसे भुरस कर पुनः छाछको भी फूंककर पीना बुद्धिमानी नहीं है । सब ही ज्ञान और कल्पनाएं एकसी नहीं हैं। अनेक वस्तुभूत कल्पनायें हैं, और कुछ अपरमार्थभूत कल्पनायें भी हैं। असत् कल्पनाओंको गढने वाली अवस्तुमें हम विवक्षा और अविवक्षा होनेकी योजना नहीं मानते है । सप्तभङ्गी, स्याद्वाद सिद्धांत और व्यवहार नयकी विषय हो रहीं कल्पनायें वस्तुस्वभावों के अनुसार की गयी हैं।
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स्वसम्वेदनविषयस्य च स्वरूपस्य कुतः परमार्थसमवसिद्धिर्यतः संवेदनाद्वैतं चित्राद्वैत वा स्वरूपस्य स्वतो गतिं साधयेत्, यदि पुनः स्वरूपस्य स्वतोऽपि गर्ति नेच्छेसदा न स्वतः संवेद्यते नापि परतोस्ति च तदिति किमघशीलवचनम् ।
आप बौद्धोंने विज्ञानाद्वैतरूप स्वरूपकी अपने आप ही से ज्ञप्ति होना मानी है । यदि स्वरूपका ज्ञान भी मिथ्या वासनाओंसे उत्पन्न होकर अवस्तुको विषय करता हुआ कल्पित बन आवेगा तो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष विषय होरहे शुद्ध ज्ञानके स्वरूपकी वस्तुभूत करके विद्यमानपनकी सिद्धि कैसे होगी ? जिससे कि आप बौद्धों के माने हुए संवेदनाद्वैत या चित्राद्वैत स्वरूपकी अपने आप ज्ञ होनेको सिद्ध करावे | यदि फिर आप ज्ञानके स्वरूपकी भी अपने आप से ज्ञप्ति होना नहीं