Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
समान रूप से विद्यमान है। भावार्थ- जैसे कुण्ड अपने आधार स्व अवययोंमें रहता है और दधि भी अपने अवयवों में रहता है अथवा घट कपालमें रहता है और जल अपने अवयवों में रहता है । यहां जैसे दो आधार हैं और दो आधेय हैं, वैसे ही रूप में रहता है और पट अपने अवयव तंतुओं में रहता है या कपालोंमें घट रहता है और कपालिकाओं में कपाल रहते हैं। इन समवाय सबंधवाले सम्बंधियोंमें भी भिन्न भिन्न आश्रयोंमें रहनारूप युतसिद्धि देखी जाती है। अतः गुण, गुणी, क्रिया, क्रियावान्, जाति, जातिमान् इनका मी आवेय और आधारका भिन्न भिन्न अधिक रणोंमें रहने के कारण संयोग सम्बंध होजाओ ।
नन्वयुतसिद्धानां समवायित्वात् समवायिनां युतसिद्धिरसिद्धेति चेत् ।
tfs कहते हैं कि अतसिद्ध पदार्थोंको ही समवायीपना है। जिन दो आधार आधेय पदार्थोंसे एक पदार्थ भिन्न दूसरेको नहीं आश्रय मानकर ठहर जाता है, उन दो को अयुतसिद्ध कहते हैं । भावार्थ - - समवाय सम्बंधवालो में आधार आधेय मिलाकर तीन पदार्थ होते हैं और संयोग सम्बंधवालोंमें आधार और आधेय मिलानेसे चार पदार्थ हो जाते हैं । यतः समदायी पदार्थों की भिन्न भिन्न आश्रयमें रहना रूप युतसिद्धि सिद्ध नहीं है । अयुतसिद्धि है। आचार्य कहते हैं कि यदि नैयायिक ऐसा कहेंगे तो
तद्वद्वत्तिर्गुणादीनां स्वाश्रयेषु च तद्वताम् ।
युतसिद्धिर्यदा न स्यात्तदान्यत्रापि सा कथम् ॥ १८ ॥
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उन दही, कुंडी, आदि संयोगी पदार्थों के समान ही गुण, क्रिया, अवयत्री, विशेष और सामान्यरूप प्रतियोगियोंकी अपने आधार माने गये गुणी, क्रियावान्, अवयव, नित्य द्रव्य और द्रव्य गुण कर्मरूप अनुयोगियों में वृद्धि है और गुणवान् गुणियोंकी अपने आश्रयों में वृत्ति हो रही है, ऐसी दशामें भी जब समवायियोंकी आप युतसिद्धि नहीं मानते हैं तो अन्य संयोगियों में भी वह श्रुतसिद्धि कैसे मानी जावेगी ! अर्थात् नहीं । विश्वासका कारण युतसिद्धिका लक्षण यहां दोनों स्थानपर घट जाता ही है । केवल तीन, चार, पदार्थ कह देने से न्यायप्रासका उल्लंघन आप नहीं कर सकेंगे। समवायी पदार्थों में भी गहरी गवेषणा करनेपर चार पदार्थ मानने पडेंगे। यद्यपि एक घट अपने रूपकी अपेक्षा आधार है और अपने अवयवोंकी अपेक्षा आत्रेय है । फिर भी वह आधेयता और आधारता धर्म घट न्यारे हैं । अतः शास्त्रमें कहा हुआ युतसिद्धिका लक्षण बराबर समवायियों में घट जाता है । प्रभुताशाली राजाकी न्याय आज्ञाका किसीके स्वीकार न करने मात्र से भंग नहीं हो सकता है। गुण्यादिषु गुणादीनां चिर्गुण्यादीनां तु स्वाश्रये वचिरिति कथं न गुणगुण्यादीनां समवायिनां युतसिद्धिः १ पृथगाश्रयाश्रयित्वं युतसिद्धिरिति वचनात् तथापि तेषां युतसिरभावे दधिकुण्डादीनामपि सा न स्याद्विशेषलक्षणाभावात् ।