Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
खण्डन कर दिया गया है । दूसरा दोष यह है कि आपके दिये हुए अनुमानका प्रतिज्ञावाक्य दूसरे अनुमानसे बाधित हो जाता है। इस कारण आपका यह करणस हेतु सद्धेतु नहीं है। किंतु सत्प्रतिपक्ष हेवाभास है। इसी बातको दिखलाते है—करणरूप शक्ति (पक्ष ) अपने शक्तिमानसे कथञ्चित् द्रव्यरूपसे अमिन्न है ( साध्य ) उसकी शक्ति होनेसे ( हेतु ) जो शक्ति अपने शक्तिमान् मावसे उस प्रकार अमिन्न नहीं है, वह तो उसकी शक्ति ही नहीं, जैसे कि अन्य दूसरी व्यक्ति । भावार्य:सर्वथा भिन्न हो जानेके कारण घटकी शक्ति पट नहीं हो सकती है, अथवा सर्वथा अभेदपक्षवादीके मतानुसार घटकी शक्ति स्वयं घट व्यक्ति नहीं हो सकती है। तभी तो कथञ्चित् द्रव्यदृष्टि से अभिन्न और पर्यायदृष्टिसे भिन्नको जैनोंने शक्ति पदार्थ माना है। और आत्मा, अमि, जक आदिको मह कालाकिनी येन शक्ति हैउपन्य ) उस कारण शक्तिमान् आत्मा आदिकोसे कथञ्चित् अभिन्न ही है ( निगमन ) इस निदोष अनुमानसे नैयायिकोंके पूर्वोक्त अनुमानका हेतु सत्सतिपक्ष है।
नन्वेवमात्मनो ज्ञानशक्तो ज्ञानध्वनिदि ।
तदार्थग्रहणं नैव करणत्वं प्रपद्यते ॥९॥
यहां कोई शंका करता है कि जैनोंने शक्तियोंको अतीन्द्रिय माना है और स्वार्थीकारग्रहणको ज्ञान स्वीकार किया है, इस प्रकार आत्माकी ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे जन्य हुयी लब्धिरूप ज्ञानशक्तिमै यदि ज्ञान शब्दकी वृत्ति है, तब तो अर्थग्रहणरूप उपयोगात्मक ज्ञान कथ. मपि करणपनको प्राप्त नहीं हो सकता है। भावार्थ-लब्धिरूप करणशक्ति ही करण बनेगी मोक्षमार्गरूपसे माना गया ज्ञान तो अब करण न हो सकेगा। क्योंकि आप इस समय करपकी सिद्धि करते हुए करणशक्ति पर पहुंच गये हैं।
न धर्थग्रहणशक्तिर्धानमन्यत्रोपचाराव, परमार्थतीर्थग्रहणस्य ज्ञानत्वव्यवस्थितो, तदुक्तमर्थग्रहणे युद्धिरिति, ततो न ज्ञानशक्तौ ज्ञानशब्दः प्रवर्तते येन तस्य करणसाधनता स्याद्वादिना सिध्येत् । पुरुषाद्भिन्नस्य तु ज्ञानस्य गुणस्यार्थप्रमितौ साधकतमत्वात् करपात्वं युक्तम्, तथा प्रतीतोंधकामावात् । भवतु ज्ञानशक्तिः करणं तथापि न सा कत! कथञ्चिदभिन्ना युज्यते । __आत्माकी अर्थोके ग्रहण करनेकी शक्तिको ज्ञान नहीं कहसकते हैं। सिवाय उपचारके, अर्थात् भवस्तुमूत व्यवहारसे भले ही शक्तिको ज्ञान कहते । वास्तधिकरूपसे अर्थके विशेषाकारोंको ग्रहण करनेवालेको ज्ञानपनेकी व्यवस्था हो रही है । वही इमारे न्यायवार्तिक आदि शास्त्रों में ऐसा लिखा हुआ है कि अर्थको ग्रहण करनेवाला गुण बुद्धि है। इस कारणसे ज्ञानशक्तिमें ज्ञान शब्दकी प्रवृत्ति नहीं है, जिससे कि स्याद्वादियोंके मत्रमें उस ज्ञान शब्दको काणसाधन युद् प्रत्यय करने