Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कमका मात्र हो गया है ( हेतु ) जैसे कि कुएं में लटकी हुयी घडोंकी मालाके बने हुए पानी निकालनेवाले यंत्रकी प्रवृत्ति उसके कारण चक्रभ्रमणसे रुक जानेसे निवृत्त हो जाती है (अभ्वयदृष्टांत )
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यथा घटीयंत्रस्य प्रवृत्तिभ्रमणलक्षणा स्वकारणस्यारगर्तभ्रमणस्य विनिष्ठुरोर्निवर्तते तथा कचिज्जीवे शारीरमानसासात प्रवृतिरपि चतुर्गत्यरगर्त भ्रमणस्य तचत्कारणं कृत इति चेत्, तद्भाव एव भावाच्छारीरमानसासात भ्रमणस्य, न हि तचतुर्गत्यरगर्तभ्रमणाभावे सम्भवति, मनुष्यस्य मनुष्यगविद्याल्यादिविवर्त परावर्तने सत्येव तस्योपलम्भात्, सद्वतियेक्सुरनारकाणामपि यथा स्वतिर्यग्गत्यादिषु नानापरिणामप्रवर्तने सति तत्तत्सम्वेदन इति न तस्य सद्कारणत्वम् ।
जैसे छोटे छोटे घडों या बल्लियोंकी बनी हुयी मालाको एक पहिएपर लटकानेवाले और उस पहिएसे मिडी हुयी लाटको इतर दो पहियोंके द्वारा बैलसे घुमाने योग्य तीन चकवाले यंत्रपर रस्सीके सहारे कुएं लटकती हुयी घटमालाकी भ्रमण करना रूप प्रवृत्ति अपने कारण होरहे कारसे संयुक्त में घूमते हुए चकाके घूमने की सर्वथा निवृत्ति हो जानेसे निवृत्त हो जाती है, वैसे ही किसी मुक्त जीवमे शरीरसंबंधी और मनःसम्बन्धी असातारूप दुःखोंकी प्रवृत्ति भी चार गति रूप के पहिये भ्रमणकी निवृत्ति हो जानेसे निवृत्त हो जाती है। जैसे घटीमालाका घुमानेवाला कारण मै घूमनेवाला चार अरोंसे युक्त चका है, वैसे ही संसारके दुःखों का कारण चारों गतियों में भ्रमण करना है । वह उसका कारण है, यह जैनियोंने कैसे जाना ? ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि यहां अन्वयव्यतिरेक घट जाता है। उस नरक आदि चार गतियों में भ्रमण करनेपर ही जीवको शरीर और मनःसंबंधी दुःखका परिभ्रमण रूप बार बार आना हो रहा है और उस बढ़ति रूप अरहट चकाके भ्रमण न होनेपर वे आधियां और व्याधियां भी जीवके नहीं होने पाती हैं। देखो ! मनुष्यों मनुष्यगतिमें होनेवाले बालक, कुमार, वृद्ध आदि अवस्थाओंके परावर्तन होने पर ही वे गर्भ, भूख, प्यास, रोग, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदिके दुःख बार बार होते हुए देखे जा रहे हैं । उसीके समान तिर्यक्चगतिमें छेदन, भेदन, भारवहन, इष्टवियोग, खाद्यपान J निरोष, शीत, उष्ण, मच्छर, पराधीनता आदि विपत्तिये तिर्यञ्चके भवों में परावर्तन करनेपर ही हुयी हैं । एवं देवोंके भी इष्टवियोग, ईष्याभाव, दूसरेकी अधीनता, माला मुरझाना आदि बाधाएं देवगति, देवआयुष्य, कर्मके वश आत्मा के देव शरीरमें ठुस जांनके कारण उत्पन्न हुयी हैं। नारकि योंके तो दिन रात दुःखों का भोगना चालू ही रहता है, उन्हें तो एक क्षणको भी दुःख भोगने से अवकाश नहीं है । और जैसे अपने पूर्व जन्मों में हो चुकी तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति आदिये अनेक अवस्थाओं परिवर्तन होनेपर उन दुःखका प्रतिकूल संवेदन होता है वैसा सम्पूर्ण संसारी जीवों में वेदन हो रहा है। इस कारण उन शरीर संबंधी आदि दुःखों का उस चतुर्मतिभ्रमणको अकारवना नहीं है, अर्थात् चारों गतियों में घूमना जीवको अनेक दुःखका कारण है ।