Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
निवृत्तिः कुत इति चेत्, स्वकारणस्य कर्मोदय भ्रमणस्य निवृत्तेः, बलीवर्दभ्रमणस्य निवृत्तौ वत्कार्यारगर्तभ्रमणानिषु विवत् न च चतुर्गत्यरगर्तभ्रमणं कर्मोदयभ्रमणनिमित्तमित्यसिर्द्ध दृष्टकारणव्यभिचारे सति तस्य कदाचिद्भावात् तस्याकारणत्वे दृष्टकारणत्वे वा तदयोगात् ।
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उस चतुर्गतिरूप गर्त चक्र के घूमने की निवृत्ति किससे होती है ? बताओ, यदि ऐसा पूछोगे तो उत्तर सुनो! अपने कारण हो रहे मौके उदयके भ्रमणकी निवृत्ति हो जानेसे चतुर्गतिके की निवृत्ति हो जाती है, जैसे कि बैलके घूमनेकी निवृत्ति हो जानेपर उसके कार्य माने गये Tech की निवृत्ति हो जाती है । चार गतिरूप चार अरवाले गड्डे चक्रभ्रमणका निमित्त कारण कर्मों के उदयका परिभ्रमण है, यह बात असिद्ध नहीं है। क्योंकि लोक में देखे गये खाथ, पेथ, पुत्र, धन, स्त्री आदि कारणका व्यभिचार हो जानेपर, नहीं देखने में आने ऐसे सूक्ष्म ज्ञानावरण आदिम भ्रमणको ही कारण मानना पडता है । भावार्थ - सांसारिक सुख, दुःखका शरीर, पुत्र, घन आदिके साथ अन्य व्यतिरेक, नहीं है । अनेक पुरुष दृढशरीर और घनके होते हुए मी दुःखी देखे जाते हैं, और अनेक जीव शरीरसंपत्तिरहित होते हुए भी आनंद हैं। दूध यदि सुखका कारण होता तो ज्जरी और श्लेष्म रोगवालेको भी पुष्टिकर होता । विष भी अच्छी तरह प्रयुक्त किये जानेपर असंख्य प्राणियोंको नीरोग कर देता है। तपस्वी साधुओंकी घन, पुत्र आदिमें रुचि नहीं है, वे पत्थरकी शिला, वृक्षोंकी खोड़ों में ही निवास करते हैं । वृद्ध पुरुषको तरुणी विष समान प्रतीत होती है, तरुणको नहीं। शीतकालमै अभि अनुकूल हो जाती है । वही ग्रीष्म में reare पैदा करती है । वैशाख और ज्येष्ठ गर्दमको दर्ष उत्पन्न होता है। ऊंटको नीमके कडुए पत्ते अच्छे लगते हैं, आनके नहीं, इत्यादि दृष्टांतोंसे दृष्ट हो रही सामग्रीका लौकिक सुख, दुःखोंसे व्यभिचार देखा जाता है । अतः चदुर्गति भ्रमणरूप आकुलताका कारण पुण्य, पाप, कर्म ही है । पुण्य भी सोनेकी बेडियों के समान वास्तवमे आकुलताका ही कारण है। दूसरी बात यह है कि तिर्यंच आदि गतिमें होने वाले भिन्न भिन्न जातिके अनेक दुखोंको भोगते हुए वे परिभ्रमण कभी कभी होते हैं | भाग – यह जीव कभी वो तिर्यग्गतिके दुःखोंको भोगता है और कभी नरक, मनुष्य देवों की गतियों में परिभ्रमण करता है । इस कारण जो कमी होता है, वह परिभ्रमण कारणसहित अवश्य है | यदि उस सद्रूप भावका कारण न मानोगे तो वह नित्य हो जावेगा, उसका कभी कभी होना नहीं बन सकेगा । संसारमें अनेक दुःख प्रवाहरूपसे सर्वदा होते रहते हैं। किन्तु व्यक्तिरूपसे दुःख सादिसान्त है। एक दुःखका नाश होना, दूसरेका उत्पाद रहना यद्द परिभ्रमण होता है । एक समय होनेवाले अनेक दुःखोंके समुदायको भी सुखगुणकी एक सङ्कटरूप विमाव परिणति माना है अथवा जिन कण्टक, विष, दुग्ध आदि देखे हुए कारणका व्यभिचार हो रहा है, उन्हींको चतुर्गतिके भ्रमणका कारण मान लोगे तो भी नियमपूर्वक कार्य होनेका वह घन नहीं हो सकेगा ।
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