Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः .
करनेवाले आकाररहित चेतना करनेको सभ्याज्ञान नहीं कहते हैं। क्योंकि उस सामान्य आलोचनको आगे ग्रंथम दर्शनोपयोग रूपसे स्पष्ट कहनेवाले हैं। बालक या गूगेका देखना, चाखना, भी ज्ञान है। केवल दृष्टांत देदिया है। कुछ है, वह भी अनध्यवसाय ज्ञान है । जो कुछ विकल्प किया जायगा ज्ञान ही पड़ जायगा । निर्विकल्पक सामान्य आलोचनको दर्शन कहते हैं । वह अवाच्य है। ___ स्वाकारस्यैव परिच्छेदः सोऽर्थाकारस्यैव वेति च नावधारणीयं तस्य तनप्रतिक्षेपात् ।
कोई बौद्ध मतानुयायी योगाचार कहते हैं कि ज्ञान अपने ही आकारका परिच्छेद करता है, बहिरग विषयोंको नहीं जानता है, तथा किन्ही अन्य वादियोंका यह सिद्धांत है कि वह परिच्छेद् अर्थोके आकारका ही है । स्वयं ज्ञानको ज्ञान नहीं जान सकता है। क्योंकि अपने अपने आप क्रिया करनेका विरोध है। बलवान् पुरुष भी ठेलेपर बैठकर स्वयं ठेलेको नहीं ठेल सकता है, चक्षु स्वयं अपनेको नहीं देख सकती है, रसना इंद्रिय स्वयं अपना रस नहीं चखती है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार इन दोनों एकांतोंका निश्चय नहीं कर लेना चाहिये । श्योंकि उस अकेले ज्ञान या ज्ञेयको ज्ञानका वह विषयपना दूर हटा दिया गया है । इस जगत्में अकेला ज्ञान ही तत्त्व है या ज्ञेय ही तत्त्र है, सो नहीं है। क्योंकि दोनों तत्त्व विद्यमान हैं। इनका अविनाभाव संबंध है, एकका निषेध होनेपर दूसरेका भी निषेप हो जावेगा। तथा च शून्यवाद छाजावेगा। दीपक या सूर्य जैसे अपना
और परका प्रकाश करते है, वैसे ही ज्ञान भी अपना और परका प्रतिमास करता है, तभी तो कारिकामे अपनेको और अर्थको उल्लेख कर जाननेवाला ज्ञान कहा है। ज्ञानमें अपना और अर्थका विकल्प होता है। : संशयितोऽकिश्चित्करो वा स्वार्था कारपरिच्छेदस्तदिति च न प्रसज्यते, निश्चित इति विशेषणात् । .
। 'संशयरूपको प्राप्त हुआ अथवा कुछ भी प्रमितिको नहीं करनेवाला ऐसा अनध्यवसाय रूप ज्ञान मी अपने और अर्थके कुछ सच्चे, झूठे, आकारोंको जान रहा है, इसको उस सम्यज्ञानपनेका प्रसंग न हो जावे, इस निमित्तसे सम्याग्ज्ञानके लक्षणमें निश्चय किया गया ऐसा विशेषण दिया है। ऊपर कहे गये संशय और अनध्यवसाय ज्ञान निश्चयरूप नहीं है। यों मिख्याज्ञानोंसे भी स्वपर परिच्छित्ति हो रही मानी गयी है। - विपर्ययात्मा स तथा स्थादिति चेन्न, बाधवर्जित इति वचनात, बाधकोत्पसे। पूर्व स एव तथा प्रसक्त इति चेय, सदेति विशेषणात् ।
दो मिथ्याज्ञानोंका तो निश्चित रीतिसे वारण कर दिया। किंतु सीपमै चांदीको जानना यह विपर्ययस्वरूप झान भी अपनेको और अर्थको जानता है, इस कारण वह भी इस प्रकार सम्यग्ज्ञान हो जाबेगा, ऐसा कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि हमने सम्पज्ञान के लक्षणों " बात्राओंसे रहित "