Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
परतः सिद्धप्रामाण्यादागमात्तथाप्तिग्रह इति चेत्, किं तत्परं प्रवृत्तिसामर्थ्य बाघ - काभावो वा ? प्रवृत्तिसामर्थ्य चेत्, फलेनाभिसम्बन्धः सजातीयज्ञानोत्पादो वा १ प्रथमकल्पनायां किं तचाशिफलम् ? सूर्यादिग्रहणानुमानमिति चेत्, सोऽयमन्योन्यसंश्रयः । प्रसिद्धे हि आगमस्य प्रामाण्ये ततो व्याप्तिग्रहादनुमाने प्रवृत्तिस्तत्सिद्धौ चानुमानफलेनाभिसम्बन्धादागमस्य प्रामान्यमिति ।
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नैयायिकों के विचारानुसार आगममें दूसरे कारणोंसे प्रामाण्यकी उत्पत्ति मानी जायेगी और उस आगमसे व्याप्तिका ग्रहण करोगे, यों तो हम जैन पूंछते हैं कि आगम प्रमाणताका उत्पादक पदार्थ क्या है ! चाइये। वृद्धिको सान है ! अथवा क्या बाक कारणोंका उत्पन्न नहीं होना है ? कहिये ।
यदि यों कहोंगे कि जलको जानकर जलमें स्नान, पान, अवगाहनरूप प्रवृत्तिकी सामर्थ्य से जलज्ञानमें प्रमाणता उत्पन्न हो जाती है। इस प्रवृति सामथ्र्यमें भी दो विकल्प हैं । पहिला फलके साथ ज्ञाताका चारों ओर सम्बम्ब होजाना और दूसरा उसी ज्ञाता में दूसरे सजातीय ज्ञानका उत्पाद हो जाना है !
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पहिली कल्पना माननेपर तो आप बतलाओ कि उस व्याप्तिका फल क्या है ? जिसके साथ सम्बन्ध करलिया जावे । यदि सूर्य, चंद्र आदिके ग्रहणका अनुमान करना यदि व्याप्तिका फल है, तब तो यह वही अन्योन्याश्रय दोष है । सो इस प्रकार है। उसे सुनिये | आगमको प्रमाणीकपना अच्छा सिद्ध हो जावे, तब तो उस प्रमाणीक आगमसे व्याप्सिग्रहण करते हुए ग्रहणके अनुमान करनेमें प्रवृत्ति होने, और जब वह अनुमानमें प्रवृद्धि होना सिद्ध हो जाये, तब व्याप्तिके अनुमानरूप फलके साथ सुंदर सम्बंध हो जानेसे प्रवृत्तिसामर्थ्य द्वारा आगमको प्रमाणता आये ।
सजातीयज्ञानोत्पादः प्रवृत्तिसामर्थ्यामिति चेत्, तत्सजातीयज्ञानं न तावत्प्रत्यक्षवोऽ नुमानतो वा अनवस्थानुषङ्गात् तदनुमानस्यापि व्याप्तिग्रहणपूर्वकत्वात् तयातेरपि तदागमादेव ग्रहणसम्भवाचदागमस्यापि सजातीयज्ञानोत्पादादेव प्रमाणत्वाङ्गीकरणास् ।
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पहिले ज्ञान के विषय से समानजातिवाले विषयका दूसरा ज्ञान उत्पन्न हो जाना यदि प्रवृचिसामर्थ्य है, ऐसा कहने पर सो पूर्वके समान दो पक्ष फिर उठाये जाते हैं कि प्रत्यक्ष से उस सजातीयका ज्ञान करोगे या अनुमानसे । बताओ, प्रत्यक्ष से ज्ञान होना मानोगे तब दो ग्रहण के आकारभेदके सडश दूसरा पदार्थ प्रत्यक्षका विषय नहीं है । अतः प्रत्यक्षसे सजातीयको नहीं जान सकते हो। और अनुमानसे सजातीयका ज्ञान होना मानोगे तो अनवस्था दोषका प्रसंग आता है 1 क्योंकि वह अनुमान भी व्याप्तिग्रहण करने के पीछे उत्पन्न होगा और उस व्यासिका ग्रहण करना मी उस आगमसे ही सम्भवे है और उस आगमको भी प्रमाणता सजातीयज्ञानके उत्पाद से ही
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