Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सस्वाचिन्ताममिः
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करनेवालेको सहकारी कहते हैं किंतु यह समान कालमै नहीं रहता है। मृत्तिकाके समान कालमें रहते हुए दण्ड, चक्र, कुलाल आदिक तो घटके सहकारी कारण माने गये हैं। किंतु अंकमाला लिखने या छापनेके बहुत देर पीछे ग्रहणका आकारभेद उत्पन्न होता है।
यथोपादानमिनदेशं सहकारिकारणं तथोपादानभिनकालमपि दृष्टत्वादिति चेत् । किमेवं कस्य सहकारि न स्यात् । पितामहादेरपि हि जनकत्वमनिवार्य विरोधाभावात् । ततो नांकमाला सूर्यादिग्रहणाकारभेदे साध्ये लिंग स्वभावकार्यत्वाभावात् ।
सौगत कहते है कि उपादान होरही मृत्तिका चाकके ऊपर रहती है। मिट्टीसे दो हाथ दूरपर कुलाल रहता है । केवल हायके सम्बन्धसे मिट्टी और कुलालका एक एक देश नहीं हो जाता है । दण्ड भी मिट्टीसे कुछ दूरपरसे चाकको घुमाता है। इसी प्रकार कपडेके उपादान . कारण तन्तुओंसे कोरिया आदि भी भिन्न देशमें रहते हैं । पुण्यवान् जीव कहीं रहता है और तदनुसार कार्य अनेक भिन्न देशों में होते रहते हैं। मालब देशमें भाग्यशाली पुरुष है, उनके पुण्य से पंजाब और काबुलमें मेवा पकती है, रक्षित होती है और अनेक निमित्तोंसे खिंचकर माछवामें पहुंच जाती है। अतः जैसे उपादान कारणसे भिन्न देशमें रहनेवाला भी सहकारी कारण हो जाता है, वैसे ही उपादान कारणके मिन्न समयमें रहनेवाला भी सहकारी कारण हो जावेगा। देखा भी जाता है कि पहिले अधिक घाम पडनेसे या लएं और आंधीके चलनेसे भविष्यमे महिने दो महिने में वृष्टि अच्छी होती है । पहिले तीस वर्षके भोगे हुए न्याय्य भोग परिहारविशुद्धि संगमके सहकारी कारण हो जाते हैं । आचार्य कहते हैं कि यदि पौद्ध इस प्रकार कहेंगे, तब तो इस दंगसे कौन किसका सहकारी कारण न हो सकेगा ! भावार्थ-भिन्न देश और भिन्न कालके समी पदार्थ चाहे जिस किसीके निमित्त कारण बन बैठेंगे। पितामह, प्रपितामह, ( बाबा, पडवावा, सम्पापा) आदि भी नियमसे पुत्रके जनक बिना रोकटोकके बन जावेंगे। कोई विरोध न होगा। चाहे किसी देश या किसी भी कालके उदासीन पदार्थ प्रकृतकार्यके नियत कारण बन बैठेंगे। इस कारणसे सिद्ध होता है कि सूर्य आदि ग्रहणके आकार भेदको साध्य करनेमें अंकमाला ज्ञापक हेतु नहीं है। क्योंकि साध्यका अंकमाला स्वभाव नहीं है और कार्य भी नहीं है । आप बौद्धोंने मावको सिद्ध करने के लिये दो ही प्रकारके हेतु मान रखे हैं।
तदस्वभावकार्यत्वेऽपि तदविनाभावात्सा तत्र लिंगमित्यपरे । तेषामपि कुतो व्यालेप्रह: १ न तावत्प्रत्यक्षतो, भाविनोऽतीतस्य वा सूर्यादिग्रहणाकारमेदस्यासदाधप्रत्यक्षत्वात् , नाप्यनुमानादनवस्थानुषङ्गात् । यदि पुनरागमात्तध्याप्तिग्राहस्तदा युक्त्यनुगृहीवाचदननु. गृहीताद्वा ? न तावदाद्यः पक्षस्तत्र युक्तरप्रवृत्तेस्तदसम्भवात् । द्वितीयपक्षे खतः सिद्धप्रामाण्यात् परतो वा ? न तावत्स्वतः स्वयमनम्यस्तविषयेऽत्यन्तपरोक्षे खतामामाण्यासिद्धे. रन्यथा तदप्रामाण्यस्यापि स्वतः सिद्धिप्रसंगात् ।