Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्त्वार्यचिन्तामणिः
फिर आत्मा उपयोगस्वरूप भला किस ढंगसे सिद्ध किया गया है ? बताओ, जो कि तीसरी वार्तिकने कहा है, पूंछनेपर आचार्य महाराज उत्तर देते हैं
कथञ्चिदुपयोगात्मा पुमानध्यक्ष एव नः । प्रतिक्षणविवर्तादिरूपेणास्य परोक्षता ॥ २२६ ॥
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हम स्याद्वादियों के ममें आत्मा किसी अपेक्षा सर्व अंगोंमें उपयोगस्वरूप है अतः वह आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही है | मानार्थ- जैसे कपूरमें या कस्तूरी में रूप, रस और स्पर्शके होते हुए भी की प्रधानता से उनको गंध द्रव्य कहा जाता है । वैसेही आत्मामें अस्तित्व, द्रव्यत्व, चारित्र आदि गुणोंके रहते हुए भी चेतनागुणका विशेषरूप से समन्वय होने के कारण आत्माको ज्ञान, चैतन्यस्वरूप और स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे गम्य इष्ट किया जाता है । आत्माके गुणों में स्वपर - प्रकाशक और उल्लेख करनारूप साकार होनेके कारण बेतनागुण प्रधान है। क्योंकि आत्माके सम्पूर्ण गुण और पर्यायोंमें चेतन, गोमो होफा बन्ति से ही है। बहते हैं । उत्साहको जान रहे हैं। चारित्रको चेत रहे हैं इस प्रकार अनेक गुणोंमें संचेतनका अनुबन्ध हो रहा है, चेतनाकी ज्ञान और दर्शन पर्याय अतिप्रकाशमान होने के कारण ज्ञानपर्याय मुख्य मानी गयी है तथा ज्ञानकी विशेष प्रत्यक्ष परोक्ष अनेक पर्यायों में प्रत्यक्षको प्राधान्य दिया गया है । उस प्रत्यक्षज्ञानसे आलाका सादात्म्य संबंध है । अतः आला प्रत्यक्षरूप उपयोगात्मक है तथा आत्मा स्वयं अपने डील्ले स्वयं प्रत्यक्ष हो रहा है । प्रत्यक्ष माननेमै अन्य भी उपपत्तियां हैं। तथा प्रत्येक समय होने वाले परिणाम, स्वभाव और विभाव आदि स्वरूपोंसे यह आत्मा परोक्ष स्वरूप भी है। प्रत्येक क्षणमें होने वाली सूक्ष्म अर्थपर्यायोंका सर्वज्ञके अतिरिक्त संसारी जीव प्रत्यक्ष नहीं कर सकते हैं । अभिकी दाहकत्व, पाचकत्व शक्तियों का उत्तरकालमें होनेवाले वस्त्रदाह या ओदनपाक द्वारा जैसे अनुमान कर लिया जाता है वैसे ही आत्मा अनेक गुण, स्वभाव और अर्थपर्यायोंका अनुमान कर लिया जाता है । असंख्य पर्यायोंको तो सर्वज्ञोक्त आगमसे ही हम लोग जान पाते हैं । हमारा प्रत्यक्ष और देतुवाद सूक्ष्म अर्धपयाथों में पहाडसे सिर टकराने के समान व्यर्थ हो जाता है । अतः आत्मा अनेक अंशों में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ज्ञेय न बन सकने के कारण परोक्षस्वरूप भी है । इम कहांतक कहें, आत्मा के कतिपय अंश तो हम लोगों के ज्ञेय ही नहीं हैं। सर्वज्ञको छोडकर कोई भी जीव आत्मा के ar अनमिलाय अंशको प्रत्यक्ष और परोक्षज्ञानसे मी नहीं जान पाता है फिर भी अंश और अशी अभेद होनेके कारण पूरा आत्मा प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से दो व्यवहारों में नियमित कर दिया जाता है I
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स्वार्थाकारव्यवसायरूपेणार्यालोचनमात्ररूपेण च ज्ञानदर्शनोपयोगात्मकः पुमान् प्रत्यक्ष एव तथा खसंविदितत्वात् । प्रतिक्षणपरिणामेन, स्वावरणक्षयोपशम विशिष्टत्वेना