Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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ફેર
सवार्थचिन्तामणिः
शिष्ट रह जाता है ? जिसके लिये कि पच्चीसवां तत्त्व आत्मा माना जा रहा है। यदि आप सांख्य यों कहेंगे कि प्रधानके द्वारा किये गये कार्योंका भोग करना आत्माका साध्य प्रयोजन है । यों तब तो हम जैन कहते हैं कि प्रकृतिके बने हुए उन सुख, दुःख, अहंकार, रासनप्रत्यक्ष आदिका भोग करना भी प्रकृतिका ही कर्तव्य मान लो, जो करे सो ही भोगे । यदि सांख्य यों कहेंगे कि वह प्रकृति तो कायोंकी करनेवाली है, अतः वह भोगनेवाली नहीं हो सकती है, ऐसा सांख्योंका कहना तो जब हो सकता था कि यदि कार्य करनेवाला उस कार्यका भोक्ता न होता। किंतु सामाविक, स्वाध्याय, अध्ययन करनेवाले और अपनी अंगुली में सुईको चुभानेवाले मनुष्य उनका सुख दुःखरूपी - फल स्वयं भुगत रहे हैं। यद्यपि कुम्हार अपने बनाये हुए सम्पूर्ण घडोंसे ठण्डा पानी नहीं पीता है और सूचांकार अपने बनायें गंध सम्पूर्ण वस्त्रोंको नहीं पहिनता है, फिर भी ये लोग अपने बनाये हुए कतिपय घट, पटोंका उपभोग करते ही हैं। तथा अतिरिक्त घट, पटोंका अन्य पुरुषोंसे परितोष प्राप्त कर उसका पूर्णरूप से उपयोग करते हैं । उपभोग करना अनेक प्रकारका है। परोपकारी सज्जन भी निस्वार्थ सेवा कर आत्मीय कर्तव्य के सुख, शांति, लाभको भोग रहे हैं । सेवावृति यानी सेवा करके आजीविका करना निकृष्ट कर्म है, किंतु सेवाधर्मं पावन कार्य है। जो अपराध करता है उसीको दण्ड भोगना पडता है और तपस्वी जीव ही मुक्ति शाश्वत आनंदका भोग करते हैं । कर्तापन और मोक्कापनका सामानाधिकरण्य है अन्यथा भुजिक्रियाका कर्ता मी भोक्ता न बन सकेगा ।
द्रष्टुः कर्तृत्वे मुक्तस्यापि कर्तृत्वप्रसक्तिरिति चेत्, मुक्तः किमकर्तेष्टः १ ।
चेतना करनेवाले या भोग करनेवाले ब्रष्टा आत्माको यदि कर्ता माना जायेगा तो मुक्त rtant मी कर्तापनका प्रसंग आवेगा । मोक्षमें बैठे हुए उनको भी कुछ न कुछ काम करना पडे तो वे कृतकृत्य कैसे माने जायेंगे ! यदि सांख्य ऐसा कहेंगे तो हम पूंछते हैं कि आपने मुक्त जीवोंको क्या अकर्ता माना है । भावार्थ यास्तवमे सिद्धांत तो यही ठीक है कि मुक्त जीव मी अपनी सुख, चैतन्य, सच्चा, वीर्य, शायिक दर्शन आदि अर्थक्रियाओंको करते रहते हैं, तभी तो वे वस्तुभूत होकर अनंतकाल तक मोक्षमें स्थित रहते हैं। उत्पाद व्यय धौव्य उनके होते रहते हैं। अर्थक्रियाकारित्र वस्तुका लक्षण है । स्वपरादानापोहनव्यवस्था सबको करनी पडती है । सोता या मूच्छित मनुष्य भी रक्त मांस आदिको ठीक बनाये रखता है, ताकि मृतके समान दुर्गंध न आ सके । स्वात्मनिष्ठा बनी रहे, कर्म संघ नहीं हो सके, क्षायिक ज्ञान, चारित्र, सम्यक्त्व द्रव्यत्वकी परिण तियां मुक्तोमें सर्वदा होती रहती हैं। हो, किक आजीविका, दान, भोजन, शयन, अध्ययन, स्नान, पूजन, आदि कृत्योंको वे कर चुके हैं। उन्हें अब करने नहीं हैं। अतः वे कृतकृत्य कह दिये जाते हैं किंतु अन्य मुक्तोपयोगी कायाँको तो अनुक्षण करते ही रहते हैं। सिद्ध निठले नहीं बैठे है ।
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