Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
प्रतीतिविरुद्ध मिष्टविघातसाधनमिति चेट्, कर्तृत्वाभावसाधनमपि पुंसः श्रोता प्राताहमिति स्वकर्तृत्वप्रतीतेः ।
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सांख्य कहते हैं कि हमारे इष्टका विधान सिद्ध करना आप जैनियोंको प्रामाणिक प्रतीतिओसे निरुद्ध पडेगा, क्योंकि संसार अवस्थामें आत्माका सुख, दुःख आदिकोंको भोगना सर्वको अनुभूत हो रहा है; इस प्रकार स्याद्वादी भी स्वीकार करते हैं । अब आचार्य बोलते है कि यदि आप सांख्य ऐसा कहेंगे तो तदनुसार इम भी कहते हैं कि सांख्योंको संसार अवस्थामै आस्माके कर्तापनका अमाव सिद्ध करना भी प्रतीतिओसे विरुद्ध पडेगा। क्योंकि मैं शब्दोंका श्रवण करनेवाला हूं, गंघको सूंघ रहा हूं, मैं पदार्थों का दर्शन करता हूं, मैं आत्मध्यान करता हूं, इस प्रकार आत्माके कर्तापन की परीक्षकको प्रतीति हो रही है ।
श्रीसाहमित्यादिप्रतीतेरहंकारास्पदस्वादहंकारस्य च प्रधानवित्वात्प्रधानमेव कर्तृ तया इति चेद्र तट एवम प्रधान । न हि तस्याहंकारास्पदत्वं न प्रतिभाति शब्दादेरनुभविताहमिति प्रतीतेः सकलजनसाक्षिकत्वात् ।
यदि सांख्य यों कहें कि मैं सुनता हूं, चखता हूं इत्यादिक प्रतीतियां तो अहंकार के साथ संबंध रखती हैं और वह मैं मैं करनारूप अहंकार तो त्रिगुणात्मक प्रकृतिका परिणाम है। इस कारण प्रकृति ड़ी कर्तापन से प्रतीत हो रही है, आत्मा नहीं, ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि इसी कारणसे अनुभव करनेवाली भी प्रकृतिको ही मानलो, क्योंकि मोग करनेवाले के भी साथमें मैं लगा हुआ है। मोक्ताको अहंकारका समभिव्याहार नहीं प्रतीत होता है । यह नहीं समझना । में आत्मा शब्दका आनंद भोग रहा हूं, रसका अनुभव कर रहा हूं, मैं द्रष्टा हूं, मैं भोक्ता हूं इत्यादि प्रतीतियां सम्पूर्ण मनुष्यों के सन्मुख जानी जा रही हैं । बाल, वृद्ध, परीक्षक, सभी इस बात के साक्षी ( गवाह ) हैं ।
श्रान्तमनुभवितुरहंकारास्पदत्वमिति चेत् कर्तुः कथमश्रान्तम् ? तस्याहंकारास्पदस्वादिति चेत्, तत एवानुभवितुस्तद श्रतिमस्तु ।
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भोक्ता आत्माको अहंकारका समानाधिकरण जानना आपका भ्रमरूप है । सांख्योंके ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंछते हैं कि क्योंजी ? कर्ताको अहंकारका एकार्थपना कैसे प्रामाणिक मान लिया जाये ! बताओ। इसको भी भ्रांत कहिये । यदि आप कहो कि वह कर्ता तो अहंकारका स्थान है ही, इस कारण प्रधानरूप कर्ताको अहंकारका स्थान मानना प्रमाणरूप है । इसपर हम भी कहते हैं कि उसी कारण से मोकाको भी अपना अभ्रांत मान लिया जाये । मोक्ता के साथ भी अहंकारका बाधारहित उल्लेख होता है ।
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तस्योपाधिकत्वादहंकारास्पदस्वं प्रांतमेवेति चेत्, कुतस्तदोपाधिकत्व सिद्धिः १ ।