Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
ननु च सति धर्मिणि धर्मचिन्ता प्रवर्तवे नासति, न च मोक्षः सर्वधास्ति येन तस्य विशिष्टत्वकारणं जिज्ञास्यत, इति न साधीयः । यसात्
यहां दूसरे प्रकारसे अनुनय पूर्वक आक्षेप उठाया जा रहा है कि धर्मीकी सिद्धि हो जानेपर धाका विचार करना प्रवर्तित होता है, धर्माके सिद्ध न होनेपर उसके अंश उपांशरूप धर्मोका विचार नहीं किया जाता है, जिस कारण कि सर्व प्रकारसे मोक्ष ही सिद्ध नहीं है तो उसके विशेष स्वरूप मोक्षमार्ग नामक कारणकी जिज्ञासा कैसे होवेगी? अर्थात् मोक्षतत्वकी सिद्धि हो गयी होती तो उसके कारणका विचार करना सुंदर,न्याय्य होता। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है । जिस कारणसे कि
येऽपि सर्वात्मना मुक्तेरपह्नवकृतो जनाः । तेषां नात्राधिकारोऽस्ति श्रेयोमार्गावबोधने ॥ २५२ ॥
जो भी चार्याक, शून्यबादी आदि अन सभी स्वरूपोंसे मोक्षका खण्डन (छिपाना) कर रहे हैं, उन नास्तिकोंका इस मोक्षमागको समझानेवाले प्रकरणमें अधिकार नहीं है। वे इस विवस्सभाके सभ्य नहीं हो सकते हैं।
को हि सर्वात्मना मुक्तेरपासवकारिणो जनान्मुक्तिमार्ग प्रतिपादयेतेषां मानधिकाराम को वा प्रमाणसिद्धं निःश्रेयसमपन्हुवीत, अन्यत्रग्रलापमात्राभिधायिनो नास्तिकात् ।
ऐसा कौन विचारशील विद्वान् होगा जो कि मोक्षका समी स्वरूपोंसे निषेध कानेवाले मूर्स जनसमाजके प्रति मोक्षमार्गका.उपदेश देवे । क्योंकि उन जीव, मोक्ष, पुण्य, पाप न माननेवाले सुरामहिमोंका इस प्रसिद्ध तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथके सुनने में अधिकार नहीं है । और ऐसा अज्ञ भी कौन होगा, जो प्रमाणोंसे प्रसिद्ध होरहे मोक्षरूप धर्मीका अपव करे, केवल बकवाद करनेवाले नास्तिकोंके अतिरिक्त । भावार्थ- कोरा मूर्ख नास्तिक ही मोक्षका अस्वीकार भले ही करे, विचारशील पण्डित किसी न किसी स्वरूपसे मोक्षको मानते ही हैं।
कुतस्तहि प्रमाणात्तनिश्वीयत इति चेत्
क्यों जी | तब तो किस प्रमाणसे उस मोक्षका निश्चय कर लिया जाता है बतादो न ? भाचार्य कहते है कि यदि ऐसा कहोगे तो खुनो !
परोक्षमपि निर्वाणमागमात्संप्रतीयते । निर्बाधाद्भाविसूर्यादिग्रहणाकारभेदवत् ॥ २५३ ॥