Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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संस्वार्थ चिन्तामणिः
३९३ I उस दिलमार्ग को समझने की इच्छा युक्त जीव ही हितैषी उन वक्ताओं को भी समझाने योग्य विद्यार्थी सिद्ध हुआ । वही तो हम कह रहे हैं ।
तद्वचनवानेवेति तु न नियमः सकलविदा प्रत्यक्षत एवैतत्प्रतिपित्सायाः प्रत्येतुं शक्यत्वात् । परैरनुमानाद्वास्य विकारादिलिंगजादाप्तोपदेशाद्वा तथा प्रतीतेः ।
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शंकाकार अनुज्ञा करनेवालेने पूर्वपक्षमें यह कहा था कि जिज्ञासाको वचन द्वारा प्रकाशिक्ष करनेवाला ही प्रतिपाध होता है । उनका यह नियम तो ठीक नहीं है, क्योंकि केवलज्ञानी सर्वज्ञोको प्रत्यक्ष ज्ञानसे ही शिष्योंकी इस जिज्ञासाका निर्णय करलेना शक्य है और दूसरे वक्ता या आचार्य और विद्वान् गुरुजन इस प्रतिपाद्यके विकार, जाननेकी चेष्टा, प्रश्न पूछने के लिये आना, मादिहेतुओंसे उत्पन्न हुए अनुमान प्रमाणसे जिज्ञासाको समझ सकते हैं । अथवा सत्यवक्ताओं के उपदेश से भी इस प्रकार जिज्ञासाओं का आगमज्ञानसे जानना प्रतीत हो रहा है कि अमुक पुरुष कुछ पूछना चाहता है। महाराजजी ! इसको समझा दीजियेगा ।
संशयतद्वचनवांस्तु साक्षान्न प्रतिपाद्यस्तच्चप्रतिपित्सारहितस्य तस्याचार्य प्रत्युपसर्पणाभावात् परम्परया तु विपर्ययतद्वचनवान व्युत्पत्तितद्वचनवान् वा प्रतिपाद्योस्तु विशेषाभाबातू, यथैव हि संयतद्वचनानन्तरं स्वप्रतिबन्धकाभावात्तच्च जिज्ञासायां कस्यचित्प्रतिपाद्यता तथा विपर्ययाभ्युत्पचितद्वचनानन्तरमपि ।
शंकाकारके पांच युगलने से पहिले युगलका विचार हो चुका। अब दूसरे युग्मका परीक्षण करते हैं । संशयवान् और उस संशयको प्रकाश करनेवाले वचनोंसे युक्त पुरुष तो संशय और संशय वचनको कारण मानकर अव्यवहित रूपसे प्रतिपाद्य नहीं है । भावार्थ - प्रतिपाद्य बननेमें साक्षात् कारण जिज्ञासा है । संशय और उसके वचन तो परम्परासे भले ही प्रतिपाचपने में उपयोगी हो जावे, जो संशय और उसके बचनको कहनेवाला है, किंतु समझने की अभिलाषा नहीं रखता है, वह जीव आचार्य महाराजके पास पूंछनेके लिये उत्कण्ठासहित गमन ही नहीं करता है ।
हां, यदि संशय और उसके वचनको परम्परासे कारण मानना इष्ट कर लोगे, तब तो विप-' यज्ञान और उसके वचन से युक्त अथवा अज्ञानी ( नासमझ ) और उसका शब्दसे निरूपण करनेवाला जीव भी प्रतिपाद्य बन जाओ। क्योंकि परम्परासे कारण बनने की अपेक्षासे तीनों मिथ्या शानो कोई अंतर नहीं है । जिस ही प्रकार संशय और उसके वचनके उत्तर कालमें जिज्ञासाके अपना प्रतिबंध करनेवाले ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम और मोहनीय कर्मके मंद उदय होनेसे तत्वोंकी जिज्ञासा के उत्पन्न होजानेपर ही किसी किसी जीवको प्रतिपाथपना आता है, वैसे ही विपर्यय, अज्ञान और उनके वचनके उत्तर कालमें भी जिज्ञासा के उत्पन्न होनेपर किसीको प्रतिपाद्यपना बन जाता है ।
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