Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
विपर्यस्ताच्युत्पन्नमनसां कुतश्चिदविशेषात् संशये जाते तच्वजिज्ञासा मुक्ती सि चायुक्तम्, नियमाभावात्, न हि तेषामदृष्टविशेपात्संशयो भवति न पुनस्तच्वजिज्ञासेति नियामकमस्ति ।
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यदि शंकाकार स्वपक्षका अवधारण करता हुआ यों कहें कि जिज्ञासा तो अव्यहित पूर्ववर्ती कारण है किन्तु जिज्ञासा के ठीक प्रथम यदि कोई प्रतिपाद्यनेकी पात्रताका कारण है तो वह संशय ही है । जो विपर्ययज्ञानी या अज्ञ मूढमनवाले जीव हैं, उनको अज्ञान या विपर्यय के पीछे एक पुण्यविशेषसे संशयके उत्पन्न हो जानेपर ही तत्त्वोंकी जिज्ञासा होजाती है | अतः जिज्ञासाके पूर्ववर्ती संशयको कारण मानलो ! विपर्यय और अज्ञानको कारण न मानो । आचार्य कहते हैं कि यह शंकाकारका कहना युक्त नहीं है। क्योंकि विपर्यय और अज्ञानके पीछे संशय होकर ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है, ऐसा कोई नियम नहीं है। उन विपर्ययज्ञानी और अज्ञानियोंको बादमें विशेष पुण्य से संशय तो हो जाने, परंतु फिर अनंतर कालमें जिज्ञासा न होवे यह एकांत ठीक नहीं है । भावार्थ- पुण्य से एकदम सीधे जिज्ञासा तो न होवे किंतु संशय हो जावे इसका कोई नियम करनेवाला नहीं है। विपर्ययज्ञानके अव्यवहित उत्तर कालमें भी तत्त्वजिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है बहुतसे विपरीतज्ञानवाले या अन्युत्पन्न जीव जिज्ञासा रखकर गुरुके पास गये और तत्त्वज्ञान लेकर लौटे। शास्त्रोंमें ऐसे कतिपय दृष्टांत है ।
तच्चप्रतिपत्तेः संशयव्यवच्छेदरूपत्वात् संशयितः प्रतिपाद्यत इति चेत्, तम् - स्पन विपर्ययस्तो वा प्रतिपाद्यः संशयितवत् तत्वप्रतिपत्तेरन्युत्पत्तिविपर्यासव्यवच्छेदरूपस्वस्थ सिद्धेः संशयव्यवच्छेद रूपत्ववत् संशय विपर्ययान्युत्पत्तीनामन्यतमाव्यवच्छेदे तच्चप्रतिपचेर्यथार्थतानुपपत्तेः यथा वाऽविद्यमानसंशयस्य प्रतिपाद्यस्य संशयच्यवच्छेदार्थ तच्चप्रतिपादन मफलम्, तथैवाविद्यमानाव्युत्पत्तिविपर्ययस्य तद्व्यवच्छेदार्थमपि यथा मविष्यत्संशयव्यवच्छेदार्थ तथा भविष्यदव्युत्पत्तिविपर्ययव्यवच्छेदार्थमपि इति तस्प्रतिपित्सायां सत्यां त्रिविधः प्रतिपाद्यः, संशयितो विपर्यस्त बुद्धिरव्युत्पन्नश्च ।
यदि आप शंकाकार अनुनयसहित यह कहेंगे कि तत्वोंकी प्रतिपत्ति करना संशयका निवृत्त होना स्वरूप है। इस कारण जिस पुरुषको संशय उत्पन्न हो गया है, वही पुरुष प्रतिपादित किया जाता है । भावार्थ -- तत्त्वप्रतिपत्तिका कारण यदि संशय न होता तो उससे संशय दूर कैसे किया जाता ! | ऐसा कहनेपर तब तो हम कहेंगे कि यो संशयित पुरुषके समान ही अज्ञानी और विपर्ययज्ञानी भी समझाया जा सकता है । तत्वोंकी प्रतिपत्ति जैसे संशय दूर होना रूप है वैसे ही अज्ञान दूर होना और विपर्यय दूर होना रूप भी सिद्ध है । अज्ञान तीन माने गये हैं। चांदीमें रांग या चांदीका संचयकरनेवाले पुरुषका संशय जैसे चांदी के निर्णयसे दूर हो जाता है, वैसे ही चांदीका निर्णय कर