Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
मार्गसे नहीं लगनापन भी नहीं बनेगा। आस्माको कूटस्थ नित्य मानने में यह बही आपति है कि जो पुंछल्ला लग गया, वह टल नहीं सकता है। हां, आत्मा कुछ अतिशयोंको छोडे और अन्योंके ग्रहण करे तब तो योक्ष्यमाण, युज्यमान, युक्त होना या नहीं युज्यमान ये बन सकते हैं। अन्यथा नहीं।
पूर्व योक्ष्यमाणः पचासेनायुज्यमान इति घायुक्तम्, निरतिशयैकान्तत्वविरोधात् ।
पहिली अवस्थामै आत्मा कल्याणमार्गसे भावी युक्त होनेवाला है और पीछे वर्तमानमें उस कल्याणसे संयुक्त हो जाता है, यह कहना भी युक्ति रहित है। क्योंकि आत्मा ज्ञातापन, कोपन भविष्यमें लगनापन, वर्तमानमें लापचुकनापन, आदि अतिशयोंसे रहित कोरा कूटस्थ है । अर्थात् कुछ चमस्कारोंको भागे पीछे लेता छोडता नहीं है। इस कदाग्रहरूप एकान्त मन्तव्यसे भापका विरोध होगा । भावार्थ-आत्माको परिणामी नित्य मानना पडेगा ऐसा माननेपर आपके पुरिखाजन स्वमतबाह्य समझाया लागले विरोग वान वेगे।
___ स्वतो भिन्नरतिशयैः सातिशयस्य पुंसः श्रेयसा योक्ष्यमाणता भवस्विति चेन्न, अनवस्थानुषङ्गात् । पुरुषो हि स्वातिशयैः सम्बध्यमानो यदि नानास्वभावैः समभ्यते, सदा तैरपि सम्बध्यमानः परैर्नानास्वभावरित्यनवस्था । स तैरकेन स्वभावेन सम्बध्यते इति चेत् न, अतिशयानामेकत्वप्रसंगात् । कथमन्यथैकस्वभावेन क्रियमाणानां नानाकार्याणामेकत्वापचेः पुरुषस्य नानाकार्यकारिणो नानातिशयकल्पना युक्तिमधितिष्ठेत् ।
सांख्य कहते हैं, कि हम आत्माको कूटस्थ नित्य मानते हैं किंतु स्वयं आत्मासे सर्वथा मिन्न माने गये अतिशयोंसे आत्माको अतिशयसहित भी मान लेते हैं । जैसे कि छडी, टोपी, कडे, कुण्ड.
से सहित देवदत्त है । ऐसे अतिशयवान आस्माको कल्याणमार्गसे भावी कालमें सहितपना हो जावेगा और वर्तमान तथा भूतकालकी युक्तता भी बन जायेगी। आचार्य कहते हैं कि यह सांख्योंका विचार मी ठीक नहीं है, क्योंकि अनवस्था दोषका प्रसंग आता है। सुनिये, आत्मा अपने सर्वज्ञपन, उदासीनता, नित्यता, होनेवाली कल्याणमार्गसे युक्तता आदि अतिशयोंके साथ संबंध करता हुआ यदि अनेक स्वमावोंसे सम्बन्धित होगा, तब तो संबंध करानेवाले उन स्वभावोंके साथ भी उनसे भिन्न अनेक स्वभावोंसे सम्बन्धित होगा और उन तीसरे · अनेक स्वभावोंको धारण करनेके लिये आत्माको चौथे न्यारे अनेक स्वभावोंकी मावश्यकता होगी। चौथोंको स्थापन करनेके लिये पाचमे स्वमावोंकी आकांक्षा होगी। इस तरह अनवस्था हुयी । यदि वह आत्मा अनेक अतिशयोंको धारण करनेवाले अनेक स्वभावोंके साथ एक ही स्वभावसे सम्बन्धित हो जाता है, यह कथन भी तो ठीक नहीं है। क्योंकि एक स्वभावसे रहनेवाले उन अनेक अतिशयोंको और स्वमावोंको एकानेका प्रसंग हो जावेगा । अन्यथा यांनो यदि ऐसा न स्वीकार कर अन्यपकार माना जावेगा तो एक स्वभाव