Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
माननेपर किसी भी कारणसे किसी भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । बिजली और दीपकलिका भी कई क्षणतक ठहरती है, तभी पदार्थोका पकाशन कर पाती हैं। एकक्षणमें पैदा होकर झटही नष्ट हो जानेवाली पर्यायको आत्मालाम करनेका मी अवसर नहीं मिलता है। निसने आमलाम ही नहीं किया है, वह अर्थक्रिया भी क्या करेगा और मिना अर्थक्रियाके वस्तुपना ही नहीं ठहरता है।
सन्तानः श्रेयसा योक्ष्यमाण इत्यप्यनेन प्रतिक्षिप्तम, सन्तानिव्यतिरेफेण सन्तान. स्यानिष्टे, पूर्वोत्तरक्षणा एवं परामृष्टभेदाः सन्तानस्स चावस्तुभूतः कर्य श्रेयसा योक्ष्यते ।।
बौद्ध कहते हैं कि जैसे हिंसककी एकसमयकी पर्याय हिंसा नामक लम्धे कर्मको नहीं करती है, किंतु हिंसक आत्माकी अनेकपोये हिंसाकार्यमें लगी हुयी है । वैसे ही विज्ञानकी अकेली क्षणिक पर्याय कल्याणमार्गमें नहीं लगती है किंतु भूत, भविष्यत् कालकी अनेक पर्यायोकी लहीरूपसंतति कल्याणसे संयुक्त हो जावेगी। आचार्य कह रहे हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना मी इस पूर्वोक्तकथनसे खण्डित हो जाता है। यदि आप शणिकपर्यायोमे अन्वितरूपसे रहनेवाला एक संतान मानले होते, तम वो आपका कहना ठीक हो सकता था किंतु आप पौद्धोने क्षणिक संतानियोंसे अतिरिक्त एक संतान कोई इष्ट किया नहीं है । आपका ग्रंथ है कि " पूर्वोचर क्षणों में होनेवाले संपूर्ण पर्याय वास्तवमें एक दूसरेसे सर्वथा मिन्न हैं " । भ्रांतिके वश उन पर्यायोमे यदि भेदका विचार न किया जावे तो वे अनेक परिणाम ही संतानरूप कल्पित कर लिये जाते हैं । और यथार्थमें वह संतान वस्तुभूत नहीं है। आप बौद्ध किसी भी वास्तविक संबंघको नहीं मानते हैं तो पूर्वीपरकालभावी परिणामोंका कालिकसंबंध काहेको मानने लगे। भला ऐसी अपरमार्थरूप संतान कल्याण मार्गके साथ कैसे संयुक्त हो सकेगी ! अर्थात् आपका माना गया तुच्छसंतान कल्याणमार्गी नहीं बन पाता है।
प्रधानं श्रेयसा योक्ष्यमाणमित्ययसम्भाव्यम्, पुरुषपरिकल्पनविरोधात् । तदेव हि संसरति तदेव च विमुच्यत इति किमन्यत्पुरुषसाध्यमास्ति ? प्रधानकृतस्यानुभवनं पुस: प्रयोजनमिति चेत्, प्रधानस्यैव तदस्तु । कर्तृत्वात्तस्य समेति चेत्, स्यादेवं यदि कर्तानुभविता न स्यात् ।
___ सांख्य कहते हैं कि सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूप प्रकृति ही मोक्षमार्गसे युक्त होनेवाली है। ग्रंथकार समझाते हैं कि इस प्रकार कापिलोंका मन्तव्य भी सम्मवने योग्य नहीं है। क्योंकि यदि प्रकृतिका ही मुक्तिमार्गमे प्रवेश्च माना जावेगा तो आत्मतत्त्वकी कल्पना करनेका विरोष माता है। जब कि प्रकृति ही संसारमै संसरण करती है और वह प्रकृति ही विशेषरूपसे मोक्षको माप्त करती है। ऐसा सिद्धांत करनेपर फिर आत्माके द्वारा साध्य करने के लिये कौन दूसरा कार्य भव