Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ चिन्तामणिः
रोगको दुःखकारणपना सिद्ध न होये । अर्थात् संसारकी व्याधि, अधि, उपाधियां अनेक दुःखोंके कारण हैं । जो जीव व्याधियोंका नाश कर देता है, वह सुखके मार्गमें लग जाता है ।
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तद्विध्वंसः कथमिति चेत्, कचिन्निदान परिध्वंस सिद्धेः । यत्र यस्य निदानपरिवसस्तत्र तस्य परिध्वंसो दृष्टो यया कचिज्ज्वरस्य । निदानपरिध्वंस संसारव्याधेः शुद्धात्मनीति कारणानुपलब्धिः । संसारव्याधेर्निदानं मिध्यादर्शनादि, तस्य विध्वंसः सम्पग्दर्श नादि भावनाबलाद कचिदिति समर्थयिष्यमाणत्वान हेतोरसिद्धता शङ्कनीया ।
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उन व्याधियोंका ध्वंस कैसे होगा ! ऐसा पूंछनेपर तो हम उत्तर देते हैं कि किसी न किसी निकटमव्य आत्मा ( पक्ष ) व्याधियोंके प्रधानकारणोंका नाश सिद्ध हो चुका है ( साध्य ) जहां जिस कार्य आदिकारणका पूर्ण क्षय हो जाता है। वहां उस कार्यका नाश हो जाना देखा गया है । जैसे कि ज्वरके कारण वास, पित्त, कफके दोषोंका विनाश हो जानेपर किसी रोगी में ज्वरका नाश हो जाता है, या अभिके प्रकर्ष होनेपर जैसे शीतस्पर्शका नाश हो जाता है ( न्याप्ति पूर्वक अन्वय दृष्टांत ) इसीके सदृश संसाररोगके निदानका क्षय शुद्ध आत्मामे विद्यमान है । ( उपनय ) इस प्रकार कारणकी अनुपलब्धिसे कार्यका अमाव जान लिया जाता है । ( निगमन ) संसारव्याधि प्रधानकारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चास्त्रिका यथायोग्य परिपालन और पूर्णताकी मावना भावनेकी सामर्थ्य से उन मिध्यादर्शन आदिकोंका बढ़िया नाश किसी एक मुमुक्षु आत्मामें हो जाता है। इस बालका भविष्य में अच्छी तरह से समर्थन कर देनेवाले हैं । मतः कल्याणमार्गसे युक्त होना नामक साध्य करने में दिये गये व्याधिविध्वंसकपना हेतुके असिद्धतादोषकी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि feat freeeव्य जीव आत्मारूप पक्षमें यह हेतु विद्यमान है ।
सरसि शंखकादिनानैकान्तिकोऽयं हेतुः, स्वनिदानस्य जलस्य परिध्वंसेऽपि तस्यापरिध्वंसादिति चेन्न तस्य जलनिदानत्वासिद्धेः । स्वारम्भकपुद्गलपरिणामनिदानत्वात् शंखादे स्वत्सहकारिमात्रत्वाअलादीनाम् । न हि कारणमात्रं केनचित्कस्यचिन्निदानमिष्टं freaस्यैव कारणस्य निदानत्वात् न च तन्नाशे कस्यचिन्निदानिनो न नाश इत्यव्यभिचार्येव हेतुः कथंचन संसारव्याधिविध्वंसनं साधयेद्यतस्तत्परिष्वसनेन श्रेयसा योक्ष्यमाणः कचिदुपयोगात्मकात्मा न स्यात् ।
यहां कोई शंका करते हैं कि आप कार्यके नाशको सिद्ध करनेवाला निदानध्वरूप यह जैनोंका हेतु तो तालाब में रहनेवाले शंख, सीप आदिसे व्यभिचारी है, क्योंकि शंख, सीपका मचानकारण जल है किंतु अपने निदान माने गये जलके सर्वथा सूख जानेपर भी उन शंख और सीपका नाथ नहीं हो जाता है। वे सूखे तालाब में बेखटके पड़े रहते हैं। आचार्य कहते हैं कि यह शंका तो