Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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मन्नार्थचिन्तामणिः
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उदय न होनारूप एकदेश कमौकी मोक्ष हो जानेपर वह संतोषामृतसुख आत्मामे स्वभावसे प्रगट हो जाता है । मोहनीय कर्मका कुछ अंशोंसे क्षयोपशम हो जानेपर ही विषयोंकी आसक्ति में आत्मा के वीतरागता उत्पन्न होजाती है । संसार के संकल्पविकल्पोंसे रहित वीतरागी होनेका अन्य कोई दूसरा उपाय नहीं है । अन्यथा एकेन्द्रियजीवों को भी संन्तोषी वीतरागी बननेका अतिप्रसंग हो जायेगा । यदि नदीस्नान, बाल मुंडाना आदि बहिरंग क्रियाओंसे वीतरागी साधु बन सकें तो मच्छली, मेंढक, भेड आदि भी प्रधान वीतरागी बन आयेंगे।
तदेतेन यतिजनस्य मशमसुखमसांसारिकं व्याख्यातम् । क्षीणमोहानां तु कास्यैतः प्रशमसुखं मोहपरतन्त्रत्व निवृत्तेः ।
इस कारण इस उक्त कथनसे छठवें सातवें आदि गुणस्थानवाले मुनि ऋषियोंको जो प्रकृ शान्तिस्वरूप सुख है, वह संसारसम्बन्धी नहीं है । यह बात भी समझा दी गयी है और जिनका मोहनीय कर्म सर्वथा बन्ध, उदय और सत्त्वपनेसे क्षयप्राप्त हो गया है। उन बारहवे गुणस्थानवाले निर्ग्रन्थ और तेरहवेंवाले स्नातक साधुओंके तो सम्पूर्णरूपसे आत्मीय स्वाभा वि शान्तिका सुख है । क्योंकि मोहनीय कर्मकी पराधीनता सर्वथा नष्ट हो गयी है। तभी तो आत्माका स्वाभाविक सुख गुण व्यक्त हो गया है। जीवन्मुक्ति है ही, परममुक्ति भी अ दूर नहीं है ।
यदपि संसारिणामनुकूल वेदनीयप्रातीतिकं सुखमिति मतम्, तदप्यभिमानमात्रम् पारतन्त्र्याख्येन दुःखेनानुषक्तत्वात्तस्य तत्कारणत्वात् कार्यस्वाच्चेति न संसारव्याधि - र्जातुचित्सुखकारणं येनास्य दुःखकारणत्वं न सिद्धयेत् ।
जो भी संसारी जीवोंके सातावेदनीयका उदय होनेपर अपनी अनुकूल प्रतीतिके अनुसार वैमाविक आनंदका अनुभवन करनारूप सुख प्रतीत हो रहा है यह मंतव्य है, वह भी केवल अभिमान करना मात्र है। क्योंकि वास्तवमे संसारी जीवोंको अभीतक ठीक सुखका अनुमत्र ही नहीं हुआ है। मिश्री रससे लिपटी हुयी छुरीको चाटने के समान या दादको खुजाने के समान सांसारिक सुखका अनुकूलवेदन हो रहा है, किंतु ये सब सुखाभास हैं । वे परतंत्रतानामक - दुःखसे भरपूर होकर सन रहे हैं क्योंकि वे सब माने हुए सुख बिचारे कम की अधीनतारूप कारणोंसे दी तो उत्पन्न हुए हैं और पीछेले पराधीन कर देना भी उन सुखोंका कार्य है । माचार्य – दुःखसे ही वे सुख उत्पन्न हुए हैं और भविष्य में भी दुःखकार्यको उत्पन्न कर देते हैं । एक मनुष्यको लाल मिर्च खाना अच्छा लगता है। किसीको दूसरोंके पीटने में आनंद आता है, वह दुःखका कार्य और दुःखका कारण भी है | यही दूध पीना, भोजन करना, भोग करना आदि सुखाभासों में भी समझ छेना । इस प्रकार संसारकाव्याधि कभी सुखका कारण नहीं हो सकती है । जिससे कि संसार
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