Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वाचिन्तामणिः
त्यका एक ही अर्थ है । इस प्रकार उस अनित्यपनेकी सिद्धि होनेपर आपके भरत्व हेतुसे पुरुषके उस भोगमें अचेतनपना सिद्ध हो जाता है, जो कि आपको अनिष्ट है । अतः सुख आदिकको अचेतनपना सिद्ध करनेमें दिया गया आपका भंगुरत्व हेतु व्यभिचारी है । पुरुषके उपभोगरूप पक्षको (में) परकी अपेक्षा रखनापन हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि आत्माका भोग अपनी उत्पत्तिमै बुद्धि के द्वारा किये गये निर्णयरूप दूसरे कारणकी अपेक्षा करता है आपके सांख्यदर्शनका वाक्य है कि "बुद्धिसे निीत किये गये अर्थको ही आत्मा अनुभव करता है। यदि पुरुषकी चेतना करने में दूसरे कारणकी अपेक्षा न मानी जावेगी तो आत्माको सर्व पदार्थों की चेतनारूप अनुभव करनेका प्रसंग आवेगा । आत्मा सबका द्रष्टा बन जावेगा क्योंकि सकल पदार्थोंका बुद्धिके द्वारा निर्णय न करनेपर भी आपके कथनानुसार सकलपदार्थाका अनुभव या दर्शन करना बन जाता है । इस कारण सम्प्रज्ञात योगवाले सर्वज्ञोंके समान सम्मज्ञात और असम्प्रज्ञात योगसे होरहे मुक्त जीवोंके अथवा साधारण संसारी जीवोंके भी सर्वज्ञपना प्राप्त हो जायेगा, जो कि आप सांख्योंको इष्ट नहीं है । पतञ्जलि दर्शन भी इस बातको इष्ट नहीं करता है ।
सर्वस्य सर्वदा पुंसः सिद्धयुपायस्तथा पृथा। ततो दृग्बोधयोरात्मस्वभावत्वं प्रसिद्धपतु ॥ २४३॥ कथञ्चिन्नश्वरत्वस्याविरोधान्नर्यपीक्षणात् । तथैवार्थक्रियासिद्धेरन्यथा वस्तुताक्षतेः ॥ २४४ ॥
जब कि बिना उपायके ही सम्पूर्ण जीव सर्वज्ञ हो जायेंगे तैसा होनेपर तो सब कालमें सम्पूर्ण जीवोंको सिद्धि के कारण दीक्षा, तपस्या, योग, तत्वज्ञान आदि उपायोंका अवलम्ब करना भिष्फल है । उस कारणसे हमारा कहना ही प्रसिद्ध हो जाओ कि चैतन्य और ज्ञान दोनों ही आमाके स्वभाव है, दोनों अभिन्न है । और जो आत्माको ज्ञानस्वरूप माननेसे आत्माकी अनित्यताके प्रसंगका भय लगा हुआ है । वह भय भी आप सांख्योंको हृदयसे निकाल देना चाहिये । क्योंकि घटके समान आत्मामें भी किसी अपेक्षासे अनित्यपनेका कोई विरोध नहीं है । आत्मासे तादात्यसम्बन्ध रसनेवाले परिणामोंका कथञ्चित् उत्पाद और विनाश माना है। इस प्रकार होनेपर ही तो आत्मा अर्थक्रियाकी सिद्धि देखी जाती है । आत्माकी अर्थक्रिया यही है कि मतिज्ञानका नाश और श्रुतज्ञानका उत्पाद होवे तथा बाल्य अवस्थासे कुमार अवस्था और कुमार अवस्थाका विनाश होकर युवा अवस्थाका उत्पाद होवे। इत्यादि अर्थक्रियाएं यदि आत्मा नहीं मानी जावेगी तो अन्य प्रकारों से आत्माका वस्तुपन नष्ट हो जावेगा । भावार्थ- अर्थक्रियाओंके बिना आत्मा वस्तु न अर सकेगा । एककरिश्त पदार्थ मान लिया जावेगा । '' उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्" यह