Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्याचिन्तामणिः
अखण्ड सिद्धान्त है । द्रव्यत्वगुण और कालाणुये प्रत्येक वस्तुको प्रतिक्षण नवीन पर्यायोंको धारनेके लिये उत्तेजित करते रहते हैं।
सर्वस्य सर्वज्ञत्वे च वृथा सिद्धयुपायः साध्याभावात् । सिद्धिर्हि सर्वज्ञता मुक्तिों कुश्विदनुष्ठानात्साध्यते ? तत्र न तावत्सर्वज्ञता तस्याः स्वता सिद्धत्वात् । नापि मुक्तिः सर्वत्रतापाये तदुपगमात्तस्य चासम्भवात् । परानपेक्षितायाः सर्वदर्शितायाः परानिवृत्तावपि प्रसक्तेः ।
सदा सब जीवोंको सुलभतासे ही जब सर्वज्ञपना प्राप्त हो गया सो सिद्धिका तपस्या, उपवास, वैराग्य आदिके द्वारा उपाय करना व्यर्थ है । क्योंकि मोक्षम हमको सर्वज्ञताके अतिरिक्त कोई अन्य साधने योग्य कार्य करना नहीं है । आप कापिलोंसे हम पूंछते है कि जिस सिद्धिको आप भेदविज्ञान, तपस्या, पुण्मकर्मका अनुष्ठान आदि किन्ही उपायोंसे साधते हैं, वह सिद्धि आपके यहां क्या मानी गयी है ! षताओ। केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का एक समयमें प्रत्यक्ष करना सिद्धि है। अथवा ज्ञान, सुख आदिकका नाश होकर आस्माका स्वरूपमें स्थित रहनारूप मोक्षको आप सिद्धि मानते हैं । कहिये । उन उक्त दोनों पक्षोंमें पहिली सर्वज्ञताप सिद्धि मानना तो ठीक नहीं है, क्योंकि वह सर्वज्ञता तो तपस्या, पुण्यकर्म आदि उपायोंके बिना ही अपने माप सुलभतासे सिद्ध हो जाती मान ली गयी है। आपके मतमें सर्वज्ञपना प्रकृतिका धर्म है और प्रकृतिका आत्मासे संसर्ग हो रहा है। बुद्धिसे निर्णय किये जा चुकनेपर अनुभव करनेका झगडा अभी आपने निकाल ही दिया है।
दूसरे पक्षके अनुसार आस्माकी मोक्ष हो आनेको सिद्धि मानेंगे, सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि आपने असंपज्ञात योगसे प्रकृतिको ओरसे आई हुई सर्वज्ञताका नाश हो जाने पर द्रष्टा, चेतयिता, आस्माकी उस स्वरूपमें स्थितिको मोक्ष माना है। किंतु जप सर्वज्ञता आमाको स्वतः सिद्ध प्राप्त हो गयी है तो उसका नाश करना सम्मव नहीं है। सबको देखनेवाली सर्वज्ञताको जब दूसरे कारण कहे गये बुद्धिके अध्यवसायकी अपेक्षा ही नहीं है तो प्रकृतिकी बनी हुयी बुद्धिका मोक्ष अवस्था में निवारण या अनिवारण होनेपर भी सर्वज्ञताके अक्षुण्ण बने रहनेका प्रसंग विद्यमान है । भावार्थ--- सर्वज्ञता अब आलासे दूर नहीं हो सकती है। क्योंकि दर्शनके समान ज्ञान भी आत्माका स्वभाव है स्वभावमें परकी अपेक्षा नहीं मानी गयी है।
___ स्यान्मतम् न बुख्यध्यवसितार्थालोचनं पुंसो दर्शनं तस्यात्मस्वभावत्वेन व्यवस्थितस्वादिति तदपि नावधानीयम्, बोधस्याप्यात्मस्वभावत्वोपपचेः । न सहकारामिमतार्थाध्यबसायो बुद्धिस्तस्याः पुंस्वभावत्वेन प्रतीदेवोधाभावात् इति दर्शनज्ञानयोरात्मस्वमा वखमेव प्रसिद्धचत विशेषाभावात् ।