Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
जैन सिद्धांतमें परमाणुको वरफोके समान षट्कोण माना है, तभी तो लोक कालाणुओंसे ठसा उस भरा है । परमाणुओंको गोल नहीं मानना अन्यथा गालक बीचमै खाली स्थान छूट आयगा। अवीसोकके सात राजूसे मध्य लोकमें आनेपर या मध्य लोकसे ब्रह्म स्वर्गके किनारे किनारे जानेपर बातबलयों में परमाणुओंके कोने निकलते रहेंगे। कोई मी रंदा उन कोनोंको चीकना सुथरा नहीं कर सकता है। क्योंकि परमाणुये नौकीली अखंड द्रव्य है । परमाणु एकातरूपमे निरंश नहीं है । निरंश पदार्थमे दो विरुद्ध धर्म एक समय नहीं रहते हैं । अतः किसी देशमें विद्यमान हो रहे उस परमाणुका भी अन्य दूसरे देशों में वह ठहरना सिद्ध नहीं होता है । इसलिये निरंश व्यापक आत्माके दो विरुद्ध धर्मोको स्वीकार करने परमाणुका दृष्टांत सम नहीं है विषम है । भावार्थ-आत्मा, परमाणु, दोनों ही सांश होकर तो संसर्ग होजाने या असंसर्ग होजाने को धारण कर सकती है। अन्यथा उपाय नहीं है ।
गगनवत्स्यादिति चेत् न, तस्यानन्तप्रदेशतया प्रसिद्धस्य तदुपपत्तेरन्यथात्मवघटनात्।
यदि कापिल यों कहे कि जैसे अंशोंसे रहित हो रहा आकाश अनेक पदार्थोसे संसर्ग रखता हुआ व्यापक है, वैसे ही निरंश आत्मा मी व्यापक हो जावेगा । अन्धकार कहते हैं कि यह भी तो ठीक नहीं है, क्योंकि वह आकाश अनंत प्रदेशवाला प्रसिद्ध है। तभी तो एक आकाशका उन अनेक देशों में रहनापन युक्तिमोंसे सिद्ध हो जाता है। अन्यथा यानी यदि आकाश अनंताक्शी नहीं माना आवेगा तो आत्माके समान माकाशका भी अनेक देशवर्ती पदार्थोसे संबंध होना न पन सकेगा। समझ लीजिये।
नन्वेक द्रव्यमनन्तपर्यायान्सकदपि यथा व्यामोति तथात्मा व्यक्तविवर्तशरीरेण संसर्ग कचिदन्यत्र वाऽसंसर्ग प्रतिपद्यत इति चेन्न, वस्तुनो द्रव्यपर्यायात्मकस्य जात्यन्तरस्वात्, व्याप्यव्यापकभावस्य नयवशात्तत्र निरूपणात्, नैवं नानकस्वभावः पुरुषो जात्यन्तरतयोपेयते निरतिशयात्मवादविरोधादिति ।
सांख्य पुनः समदृष्टांत ढूंढनेका प्रयत्न करते हुए स्वपक्षका अवधारण करते हैं कि जैसे जैनोंके मतमें एक द्रभ्य एक समय भी अनंत पर्यायोंको व्याप्त कर लेता है वैसे ही एक आत्मा व्यक्त पर्यायस्वरूप शरीरके साथ संसर्गको और कहीं दूसरे पर्वत आदि स्थानों में असंसर्गको पारण कर लेता है । भारार्य प्रतिपादन करते हैं कि कापिलोंका इस प्रकार कहना ठीक नहीं है क्योंकि स्याद्वादसिद्धांत द्रव्य और पर्यायसे तादात्म्य रखनेवाली वस्तुको द्रव्य और पर्यायसे तीसरी ही न्यारी जातिवाला कथंचित् भेद अभेद स्वरूप करके तवात्मक हो रहा पदार्थ स्वीकार किया है ऐसी वस्तुमे नयों के द्वारा विवक्षित धर्मों के वशसे वहां व्याप्यव्यापकमावका कथन कर दिया जाता है । भावार्थ-र्यायोंसे द्रव्य भिन्न नहीं है। पर्यायोंके समुदायको ही द्रव्य कहते हैं । वसमें अनेक