Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
यदि आत्माको सर्वत्र पर्वत आदिकों में इस प्रकार व्यापक स्वीकार करोगे, तब तो शरीर से
बाहिर वर, पट, नदी, पर्वत आदि देशों में भी आत्माका संवेदन क्यों नहीं होता है ? जैसा ही कि शरीरदेश हो रहा है। शरीर में रहनेवाली और पर्वत आदिकमें रहनेवाली उस आत्मामें कोई विशेषता तो सम्भव है नहीं फिर क्यों नहीं बाहिर देशोंमें आत्माका स्वसंचेतन ( ज्ञान ) होता है ? बतलाइये |
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यस्य हि निरतिशयः पुरुषस्तस्य कामेऽन्यत्र च न तस्य विशेषोऽस्ति यतः काये संवेदनं न ततो वहिरिति युज्यते ।
जिस कापिलके यहां पुरुषको अखण्ड, कूटस्थ, सब स्थानोंमें एकसा माना गया है मात्मा के किसी भी अंश कोई अतिशय घटला पढता नहीं है । उसके उस मसानुसार शरीरमें और घट पट, पर्वत आदिमें एकस्वरूप रहनेवाली उस आत्माकी कोई विशेषता तो है नहीं, जिस विशेषता से कि आत्माका शरीरमे तो वेदन होवे और उससे बाहिर घट आदिकमे आत्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना युक्तिसहित न बन सके। या तो दोनों स्थलों में आत्माका ज्ञान होगा या दोनोंमेंसे कहीं भी उस आत्माका संचेतन ( ज्ञान ) न हो सकेगा । न्यायोचित अभियोगको झेलना चाहिये ।
कायाद्वहिरभिव्यक्तेरभावात्तदवेदने ।
पुंसो व्यक्तेतराकार भेदाद्भेदः कथं न ते ॥ २३४ ॥
यदि आत्माको व्यापक माननेवाले सांख्य यों कहे कि शरीर से बाहर आत्मा विद्यमान तो है किंतु वह प्रगट नहीं हो सका है। इस कारण तिरोभूत आत्माका शरीरके बाहिर संवेदन नहीं होता है। ऐसा कहनेपर तुम्हारे ( आपके मतमें आत्माका प्रगट आकार और अप्रगट आकारके भेदसे मेद क्यों नहीं हो जायेगा ? अर्थात् – एक ही आत्मा तिरोभूत और आविर्भूत दो स्वभाववाली मानी गयी जो कि आताके एक स्वभाव कूटस्थापनका विघातक है ।
कायेऽभिव्यक्तत्वात् पुंसः संवेदनं न ततो बहिरनभिव्यक्तत्वादिति ब्रुवाणः कथं तस्यैकस्वभावतां साधयेत्, व्यक्तेतराकार भेदाद्भेदस्य सिद्धेः ।
शरीरमें आत्मा प्रकट हो गयी है इस कारण आत्माका संवेदन हो जाता है किन्तु उस शरीर से बाहिर पर्यंत आदिमें आत्मा लकडीमें अमिके समान प्रगट नहीं है, अतः आमाका ज्ञान नहीं हो पाता है । इस प्रकार करनेवाला सांख्य उस आत्मा के एकस्वभावपनको कैसे सिद्ध कर सकेगा ? क्योंकि शरीर व्यक्त और पर्वत आदिकों में उससे भिन्न अव्यक्त आकार के भेदोंसे वह एक आत्मा भिन्न दो सभाववाला सिद्ध हुआ जाता है अथवा दो विरुद्धमात्र आत्माका भेर सिद्ध हो जायेगा । भावार्थ - प्रत्येक आत्मा दो हो जायेंगे ।