Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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च यो जीवको सर्वथा जह हो जानेका सिद्धांतवचन क्यों न हो जाये ! आप उत्तर क्या दोगे | भावार्थ---कायम मी जीव अचेतन हो जायगा ।
कायादहिरचेतनखेन व्याप्तस्य जीवत्वस्य सिद्धेः कायेऽप्यचेतनत्वसिद्धिरिति नानवबोषादिस्वभावत्वे साध्ये चेतनत्वं साधनमासिद्धस्यासाधनत्वात् ।
देश देशांतरों में रहनेवाले सम्पूर्ण मूर्तद्रव्योंसे आत्मा संयोग रखता है इस कारण शरीरसे बाहिर घट, पट आदिकोंमें जीवस हेतुको अचेतनत्व साध्यके साथ व्याप्ति रखनेवाला सिद्ध करलिया है । वह जीवस्व हेतु विवादमस्त शरीरमें रहनेवाली श्रात्मामें भी देखा जाता है अतः अचेतनत्वसाध्यको सिद्ध कर देवेगा। इस प्रकार आत्मा अचेतन सिद्ध हो जाता है। ऐसी दशाम यात्माके ज्ञान, सुख स्वभावरहित होना साध्यको सिद्ध करने दिया गया चेतनत्र हेतु अच्छा हेतु नहीं है, किंतु उक्त अनुमानसे आत्माको अचेतन बन जानेके कारण आत्मा चेतनत्व हेतुके न रहनेसे वह असिद्ध हेत्वामास है। स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास तो साध्यका साधक नहीं होता है।
शरीराद्वहिरप्येष चेतनात्मा नरत्वतः । कायदेशवादित्येतत्प्रतीत्या विनिवार्यते ॥ २३२॥
जैसे घट आदिको दृष्टांत कह कर शरीरमें मी आत्माको आप अचेतन सिद्ध करते हैं वैसे ही शरीरको दृष्टांत लेकर घट आदिक में मी आत्मा सचेतन क्यों न माना जावे अर्थात् आत्माको चेतन सिद्ध करने के लिये यह अनुमान हम कहेंगे कि शरीरसे बाहिर घट, पट आदि मी विद्यमान यह आत्मा चेतन है, क्योंकि वह आत्मा है । जैसे कि शरीरदेशमें विद्यमान आत्मा चेतन है । इस प्रकार यह कापिलोंका अनुमान तो प्रसिद्ध पतीतिसे रोक दिया जाता है ।
काये चेतनस्वेन व्यासस्य नरवस्य दर्शनात्ततो बहिरप्यात्मनश्चेतनस्वसिद्धेनौसिद्ध साधन मिति न मन्तव्यं प्रतीतिबाधनात् । तथाहि
' सांख्यका मंतव्य है कि शरीरमें रहनेवाले आत्मारूप दृष्टांतम चेतनस्व साध्य के साथ व्याप्ति रखता हुआ आत्मत्व हेतु देखा गया है, इस कारण शरीरसे बाहिर घट, एट, पर्वत आदिमें भी रहनेवाले आत्माको चेतनापना सिद्ध हो जावेगा । अतः हमारा, आत्माको अज्ञानस्वभाव सिद्ध करने दिया गया चेतनख हेतु असिद्ध नहीं है। अंधकार कह रहे हैं कि इस प्रकार कापिलोंको नहीं मानना चाहिये क्योंकि घट, पट, पर्वत आदिकों में आत्माकी सत्ता मानना प्रतीतिसे बाधित है। इसी बातको स्पष्ट कर दिखलाते हैं— सावधान होकर सुनिये ।
तथा च बाह्यदेशेऽपि पुंसः संवेदनं न किम् । कायदेशवदेव स्याद्विशेषस्याप्यसम्भवात् ॥ २३३ ॥