Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तयाचिन्तामणिः
३५१ संख्यातप्रदेशत्वादिना चानुभयः, प्रवचनसमधिगम्यश्चात्यन्तपरोक्षरूपेणेति निणेतन्य बाधकामाचात् ।
इस वार्तिकका भाष्य यों है कि अपना और बहिरा पदार्थोका समझने और समझाने योग्य उरलेल कर निश्चय करनारूप ज्ञानसे तथा पदार्थोका केवल सत्तारूप आलोचन करनेवाले दर्शनसे आत्मा ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग-स्वरूप होता हुआ स्वयं प्रत्यक्ष ही है । क्योंकि ज्ञान और दर्शनसे आत्मा सभीको अपने आप उस प्रकार विदित हो रहा है। तया प्रत्येक समयमें होनेवाले पर्यायोंसे आस्मा अनुमानका विषय है क्योंकि अनुमानके बिना एक समयमें हुए उन विशेष परिणामोंको हम न्यारे न्यारे नहीं जान सकते हैं। हां ! उनका सच्चे हेतुसे अनुमान कर लिया जाता है। अपने ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कोंके क्षयोपशमसे सहित आत्मा है इस स्वरूप करके मी आत्माका अंश अनुमानसे जाना जाता है। जैसे कि उत्तम रंगीला चित्र देखनेसे मिचिकी स्वच्छताका अनुमान कर लेते हैं । उसीके सदृश ज्ञान, दर्शन, उत्साह, भोग, उपभोग करना इन क्रियामोंसे इनके अपना अपना आवरण करनेवाले कोका क्षयोपशम अनुमित कर लिया जाता है । एवं आरमाके असंख्याप्त प्रदेशीपन, ऊर्ध्वगौरव स्वभाव, पर्याप्ति, योग आदि भावों का मी उत्तरकालके फलरूप कार्यों को जानकर उस रूपसे अनुमान कर लिया जाता है। अतः उक्त स्वभावोंसे आत्मा अनुमेयस्वरूप भी है । एवञ्च आत्मा आगमगम्य भी है। क्योंकि आत्माके ज्ञान आदि गुणों के अविभाग प्रतिच्छेद,गुरुलघुगुण, भव्यल, अमन्यत्व, अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिफरण, याख्यात चारित्र ये सही आत्माके धर्म श्रीजिनेन्द्र देव करके कहे हुए आगमसे जाने जाते हैं। इस प्रकार आस्मा किसी अपेक्षासे प्रत्यक्षगोचर है और एक अपेक्षासे अनुमानविषय है तथा अत्यन्त परोक्ष माने गये घोंसे आगमगम्य है, ऐसा निर्णय करना चाहिये । इसमें कोई बाधा नहीं दे सकता है। जिसका तर्क या हेतुसे ज्ञान किया जाता है ऐसे पर्वतमें रहनेवाली अमि या जलकी प्यासको दूर करनेकी शक्ति और अमिको बुझानेकी शक्ति आदि ये पदार्थ परोक्ष कहे जाते हैं किन्तु जिन पदार्थोके जानने के लिये इन्द्रियां, मन, हेतु, तर्क, दृष्टान, सादृश्य आदि कारण नहीं है, उन आकाश, कालाणु, धर्मद्रव्य, अविभागप्रतिच्छेद आदिको अत्यन्त परोक्ष कहते हैं, वे पदार्थ आप्तके कहे हुए आगरसे ही जाने जाते हैं, फिर मी अनेक भाव छूट जाते हैं। सर्वज्ञ ही उनका प्रत्यक्ष कर सकते हैं, अन्य जीव नहीं। यहांतक मीमांसक पतिवादियों को समझाया गया है। अब सांख्य मतानुयायीके साथ विचार चलाते हैं।
खरूपं चेतना पुंसः सदोदासीन्यवर्तिनः । प्रधानस्यैव विज्ञानं विवर्त इति चापरे ।। २२७ ॥ तेषामध्यक्षतो बाधा ज्ञानस्यात्मनि वेदनात् । भ्रान्तिश्चेन्नात्मनस्तेन शून्यस्यानवधारणात् ॥ २२८॥