Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
आत्मा ज्ञानोपयोग स्वरूप है यह बात सांख्यको सह्य नहीं है । अतः वे कहते हैं कि सदा उदासीननेवाले सामना करना तो ठीक है। किंतु विज्ञान तो प्रकृविका ही परिणाम है । इस प्रकार जो अन्य कपिल मतानुयायी मानते हैं उनके मंतव्यमें प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही बाधा आती है। क्योंकि आत्मामें ज्ञानका समीचीन वेदन हो रहा है । अतः ज्ञान आत्माका विवर्त है, जब प्रकृतिका परिणाम ज्ञान नहीं है ।
यदि कापियों कहें कि प्रकृतिके कर्तापन आदि परिणाम आलामै प्रतिफलित हो जातें हैं और आत्मा चेतन, भोक्तापन आदि स्वभाव भ्रमवश प्रकृतिमें जाने जाते हैं। प्रकृति और आत्माका संसर्ग होनेके कारण प्रकृतिका ही ज्ञानपरिणाम आत्मा में विदित हो जाता है । उस ज्ञानको आमाका समझ लेना यह भ्रांति है, वस्तुतः ज्ञान प्रकृतिमें ही है । आचार्य कहते हैं कि यह कापि - लोका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उस ज्ञानसे रहित होरहे आत्माका कभी निर्णय नहीं किया गया है । सर्वदा आत्मा ज्ञानसहित ही प्रतीत हो रहा है यदि एक बार भी आमा ज्ञानरहित प्रतीत हो गया तो स्फटिकमै जपाकुसुमसे आई हुई ललाईके समान आस्मा में भी प्रकृतिके ज्ञानका आरोप करना मान लिया जाता, किंतु ऐसा नहीं है। जैसे जपाके फूलमै ललाई उसीके घरकी है। उसी प्रकार ज्ञान गुण भी आत्माका गांठका है बाहिरसे आया हुआ नहीं है ।
यथात्मनि चैतन्यस्य संवेदनं मयि चैतन्यं, चेतनोऽहमिति वा तथा ज्ञानस्यापि मयि ज्ञानं ज्ञाताहमिति वा प्रत्यक्षतः सिद्धेर्यथोदासीनस्य पुंसश्चैवन्यं स्वरूपं तथा ज्ञानमपि, सत्प्रधानस्यैव विवर्त ब्रुवाणस्य प्रत्यक्षबाधा ।
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जैसे आत्मा चतनपनेका संवेदन हो रहा है कि मेरे में चैतन्य है अथवा में चेतन हूं, इस कारण आमा चेतन माना जाता है। उसी प्रकार आत्मामें ज्ञानका भी संवेदन हो रहा है कि मुझने ज्ञान है अथवा मैं स्वयं ज्ञाता हूं यह भी प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध हो रहा है । अतः आस्माको ज्ञानस्वरूप भी मान लेना चाहिये और जैसे सांसारिकविषयोंसे उपेक्षा करनेवाले उदासीन पुरुषका स्वरूप चैतन्य है, उसी प्रकार उदासीन पुरुषका ही ज्ञान भी स्वभाव है ऐसा स्पष्ट प्रतीत होनेपर भी उस ज्ञानको सत्वरजस्तमोगुणरूप प्रकृतिका ही पर्याय कहनेवाले सांख्यको प्रत्यक्षप्रमाण से ही बाबा आ रही है।
ज्ञानस्यात्मनि संवेदनं भ्रांतिरिति चेत् न स्यात्तदैवं यदि ज्ञानशून्यस्यात्मनः कदाचित्संविदा स्यात् ।
आमा ज्ञानका संवेदन होना भ्रान्तिरूप है यह कापिलों का कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि इस प्रकार यह बात तब हो सकती थी यदि किसी भी समय मूलरूपसे ज्ञानरहित