Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कारण नहीं दीखता है जिससे कि विवक्षित आत्मा ही उन पदार्थोंको जान सके। दूसरे मिन्न आत्माएं न जानमे पावें। एक स्थानपर अनेक भन्धे मनुष्य बैठे हुए हैं उनको काले, पीले, नीले रंगोंके तारतम्यसे पदार्थों का विमाग करना अशक्य है। या तो सभी अन्धे काले, नीले, पीले सभी पदार्टीको एकता जानेो और प्रस्परमें एक दूसरेके ज्ञानोंका सार्य हो जायेगा। या एक भी अन्या किसी भी पदार्थको नहीं जान पावेगा क्योंकि परस्परमें कोई अन्तर नहीं है।।
ततश्चाप्रत्यक्षादर्थात् न कुतश्चित् परोक्षज्ञाननिश्चयोऽस्य वादिनः स्यात् येनेदं शोभेत ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छतीति ।
इस कारण अर्थका प्रत्यक्ष होना जब अलीक हो गया तो ऐसे किसी भी अप्रत्यक्ष अर्थसे इस मीमांसक वादीको परोक्ष ज्ञानको सत्ताका निर्णय किसी भी अनुमानसे न हो पावेगा । जिससे मीमांसकोंका यह कहना शोभा देता कि " पदार्थोके ज्ञान हो जानेपर अनुमानसे बुद्धिका ज्ञान कर लिया जाता है। " जन ज्ञानका ही निर्णय नहीं है तो ज्ञानके विषय और ज्ञाप्तपदार्थकी ज्ञाततारूप हेतुका निर्णय कैसे होगा ? और बिना हेतुज्ञानके बुद्धिरूप साध्यका अनुमान कैसे हो सकता है । कथमपि नहीं। यहां यह अन्योन्याश्रय दोष भी है कि ज्ञानका ज्ञान हो जाये तब विषयों घातता प्रतीत होवे और ज्ञातताके जाननेपर ज्ञानका अनुमान हो सके।
नाप्यसिद्धसंवेदनात्पुरुषात्तन्निश्चयो यतोऽनवस्था न भवेत, तल्लिगज्ञानस्यापि परोक्षत्वे अपरानुमानाभिर्णयातल्लिगस्याप्यपरानुमानादिति ।।
और नहीं सिद्ध है ज्ञान जिसका ऐसे आत्मासे भी मापके उस परोक्ष ज्ञानकी सत्ताका निर्णय नहीं हो सकता है जिससे कि अनवस्था दोष न होवे । भावार्थ-अज्ञात अपत्यक्ष आमासे परोक्ष ज्ञानका निर्णय करनेपर अनवस्था दोष अवश्य लगता है । क्योंकि ज्ञानको अनुमानसे सिद्ध करनेमें जो हेतु दिया गया है उस हेतुके ज्ञानको भी आप परोक्ष मानेंगे तब तो उस हेतुके ज्ञानका मी दूसरे अनुमानसे निर्णय किया जावेगा । एवञ्च दूसरे अनुमानमें पड़े हुए हेतुका ज्ञान भी तीसरे अनुमानसे जाना जावेगा। तीसरा हेतुज्ञान चौथे अनुमानसे इस प्रकार अनवस्थान्याधी पकृत परोक्षज्ञानकी सिद्धिको खा जावेगी । ज्ञापकपक्ष हेतुको बिना जाने हुए साध्यका निर्णय हो पाता नहीं है । अतः ज्ञानको जाननेकी आकाक्षाय शांत नहीं होगी, बढती ही जावेगी ।
स्वसंवेद्यत्वादात्मनो नानवस्थेति चेत् न, तस्य ज्ञानासंवेदकत्वात् , तत्संवेदकत्वे वार्थसंवेदकत्वं तस्य किन्न स्यात् ।
यदि आप मीमांसक यों कहें कि इम आत्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना मानते हैं । ऐसे स्वसंवेद्य आत्मासे ज्ञान का अनुमान कर लेवेगे । आकांक्षायें शांत हो जाने के कारण अनवस्था नहीं