Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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क्वार्थचिन्तामणिः
क्रियाका आत्मा कर्ता है और चक्षुरादिक इंद्रियां तथा मन साधकतम करण विद्यमान हैं ही। मीमांaster इनसे भिन्न परोक्षज्ञानको करण मानना फिर भी निष्प्रयोजन है ।
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_तोरनत्वादुपकरणमात्रत्वात् प्रधानं चेतनं करणमिति चेत् न, भावेन्द्रियमनसो परेषां चेतनतयावस्थितत्वात् । तदेव करज्ञानमस्माकमिति चेत्, तत्परोक्षमिति सिद्धं साध्यते । लब्ध्युपयोगात्मकस्य भावकरणस्य छवस्था प्रत्यक्षत्वात् सञ्जनितं तु ज्ञानं प्रमाणभूतं नामत्यक्ष स्वार्थव्यवसायात्मकत्वात्, तच्च नात्मनोऽर्थान्तरमेवेति स एव स्वार्थय्यवसायी यदीष्टस्तदा व्यर्थ, ततोऽपरं करणज्ञानं फलज्ञानं च व्यर्थमनेनोक्तं तस्यापि ततोऽन्यस्यैवासम्भवात् ।
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मीमांसक कहते हैं कि बहिरंग इंद्रियां और मन वे तो अचेतन हैं। इस कारण करणके etad या सहायक उपकरण हो सकते हैं। प्रधान करण तो चेतन ज्ञान ही है । श्रीविद्यानन्व mer समझाते है कि मीमांसकों का यह भी कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि तुमसे भिन्न वादी arth मतमै भावस्वरूप इंद्रिय और मनको चेतनात्मक रूप से व्यवस्थित माना गया है । यहाँ मीमांसक यदि यों कहें कि वे ही लब्धिरूप इंद्रियां हमारे मतर्फे करणज्ञान इष्ट की गयी है, तद सो हम जैन कहेंगे कि उन लब्धिरूप इंद्रियोंको यदि आप परोक्ष सिद्धसान दोष है । लब्धिरूप ज्ञान उपयोग तो आलाका अंतर
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सिद्ध करते हैं तो आपके ऊपर अतीन्द्रिय परिणाम है । वह
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की मावशक्ति ही ज्ञानका अभ्यंतर करण है । सर्वज्ञके अतिरिक्त छद्मस्थ जीवोंको उस लब्धिरूप ज्ञानशक्तिका प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है। लब्धिको भले ही आप मीमांसक परोक्ष मानें, हम भी मानते हैं। सिद्ध पदार्थो को क्यों साध्य किया जाता है। ऐसी बातें सुननेके लिये किसके पास अवसर है | अतः सिद्धसाधन दोष हुआ। हां ! उस लब्धिसे उत्पन्न हुआ प्रमाणभूत ज्ञान तो अत्यक्ष नहीं है क्योंकि उस ज्ञानका स्वरूप अपना और अर्थका निश्चय करना है और वह ज्ञान
से सर्वे भिन्न ही होब यों भी नहीं। ऐसा होनेपर वह आत्मा ही स्व और अर्थका निश्चय करनेवाला यदि मान लिया गया तब तो उस आत्मासे मित्र एक करणज्ञान मानना व्यर्थ ही है । इस उक्त कथनसे करणज्ञानके समान फलज्ञानका भी व्यर्थ होना कह दिया गया है। क्योंकि वह फलज्ञान भी उस आत्मासे सर्वथा भिन्न नहीं सम्भव है। उन दोनोंका कार्य अकेला आत्मा ही साथ देता है ।
अथवा प्रत्यक्षेऽर्थपरिच्छेदे फलज्ञाने स्वार्याकाराव भासिनि सवि किमतोऽन्यत्करणं ज्ञान पोष्यते निष्फलल्या चस्य ।
अब तक आश्माका प्रत्यक्ष होना माननेवाले कुमारिलभट्टके सम्प्रदायानुसार इस वार्षिक कारिकाका सूर्य किया अर्थाद अपनेको और अर्थको जाननेवाले आस्माका जब विशदरूपसे प्रत्यक्ष होना मानते हो तो उससे भिन्न करणशान और फलज्ञानको स्वीकार करना मीमांसकों का व्यर्थ है 1