Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सत्यार्थचिन्तामणिः
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अब उसी कारिकाका द्वितीय अर्थ प्राभाकर मीमांसकोंके प्रति घटाते हैं कि अथवा स्वयंको और rest tae करनेवाले अर्थशतिरूप फलज्ञानका प्रत्यक्ष होना जो प्रभाकर इए कहते हैं। तब अकेले फलज्ञानसे ही अर्थकी परिच्छित्ति होना सिद्ध है ऐसा होनेपर इस फलज्ञानसे मिस्र एक निराका प्रमाणस्वरूप करणज्ञान पर्यो पुछ किया बजट है। क्योंकि बीचका प्रमाणान मानना सर्वथा व्यर्थ है ।
तदेव तस्य फलमिति चेत्, प्रमाणादभिन्नं भिनं वा ? यद्यभि प्रमाणमेव तदिति कथं फलज्ञाने प्रत्यक्ष करणज्ञानमप्रत्यक्षम् ? भिन्नं चेन्न करणज्ञानं प्रमाणं स्वार्थव्यवसायाद - र्थान्तरत्वात् घटादिवत् । कथञ्चिदभिन्नमिति चेन्न सर्वथा करणज्ञानस्याप्रत्यक्षत्वं विरोधात्, प्रत्यक्षात्फलज्ञानात् कथंचिदभिनत्वात् ।
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प्रमाकर कहते हैं कि जैसे कि काठका फटनारूप क्रियाका करण कुठार है । कुठारके बिना छेदनारूप क्रिया किसकी कही जावे ? उसी प्रकार अर्थज्ञसिरूप क्रिया बिना करणके नहीं हो सकती है । इस कारण प्रमाणज्ञान मानना आवश्यक है, तभी तो उस ममाणज्ञानका फल वहीं अर्थ कही जाती है । जैसे वेगके साथ उठना और गिरनारूप क्रियाओंसे युक्त कुल्हाडीका फल काठका फट जाना है | आचार्य कहते हैं कि यदि प्राभाकर ऐसा कहेंगे तब तो हम पूंछते हैं कि यह अर्थज्ञतिरूपी फल प्रमाणसे भिन्न है या अभिन्न है ! बताओ ।
यदि फलको प्रमाणसे अभिन्न मानोगे तब तो वह फल प्रमाणरूप ही हो गया । मका ऐसी दशामें फलज्ञानका सो प्रत्यक्ष माना जावे और उससे अभिन्न करणज्ञानका प्रत्यक्ष न माना जावे यह कैसे हो सकता है ? अर्थात् प्रमाणका मी प्रत्यक्ष होना प्रामाकरोंको मानना पड़ेगा ।
द्वितीय पक्षके अनुसार यदि प्रमाणसे फलज्ञानको भिन्न मानोगे, तब तो करणज्ञान प्रमाण न बन सकेगा। क्योंकि अपने और अर्थके निश्चय करनेवाले फलज्ञानसे वह प्रमाणज्ञान सर्वया मित्र माना गया है । जैसे फलज्ञानेस सर्वथा भिन्न हो रहे घट, पर आदिक तटस्थ पदार्थ प्रमाण नहीं बनते हैं वैसे ही भिन्न उदासीन पड़ा हुआ करणज्ञान मी प्रमाण न हो सकेगा । उक्त दोनों दोषोंके निवारण के लिये यदि प्रमाण और फलज्ञानका कथम्बित् अभेद मानोगे, तब तो करणज्ञान सर्वया ही अप्रत्यक्ष न हो सकेगा । अभेदपक्ष लेनेपर फलज्ञानका प्रत्यक्षपना धर्म करणज्ञानमें भी प्रविष्ट हो जावेगा। फलज्ञानमे प्रत्यक्षत्व माना जावे और उससे अभिन्न प्रमाणज्ञानमें अप्रत्यक्षपना माना जावे यह बात विरुद्ध है हो नहीं सकती । प्रत्यक्ष होनेवाले फलज्ञानसे कमम्मित् अमिन हो - रहा प्रमाण भी प्रत्यक्षविषय हो जावेगा । अर्थात् स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से प्रमाण जान लिया जावेगा । कर्मत्वेनाप्रतिभासमानत्वात्करणज्ञानमप्रत्यक्षामिति वेन, करणत्वेन प्रतिभासमानस्य terature, कथञ्चित्प्रतिभासते च कर्म च न भवतीति व्यापातस्य प्रतिपादितत्वात् ।
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