Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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१८०.
तत्वार्थचिन्तामणिः
बौद्ध पुनः कहते हैं कि " हम किसीके नहीं और हमारा कोई नहीं है " तथा " सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं आत्मारूप नहीं हैं " इस प्रकारकी भावनाओंको बढाते, बढाते, अन्तमें जाकर शोभनपना और सम्पूर्णपना प्राप्त हो जाता है। यह उसे सुगत होनेकी सिद्धिका उपाय है। आचार्य कहते हैं कि ऐसा बौद्धों का कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि आपने श्रुतमयी और चिन्तामयी भाव - नाओंको विकल्पज्ञानात्मक माना है और विकल्पज्ञान आपके यहां वस्तुको छूनेवाला न होने के कारण झूठा ज्ञान माना गया है । जब भावनाएं वस्तुरूपतस्त्रोंको विषय नहीं करती हैं तब ऐसी असत्य भावनाओंके अन्तिम उत्कर्ष बढ जाना प्राप्त होजानेपर भी समीचीन तत्त्वोंका ज्ञान और तृष्णा का अभावरूप वैराग्य इन स्वभावोकी उत्पत्ति होनेशा विशेष है अर्थात् को हुए भी झूठे व ज्ञानसे बुद्धके ज्ञान वैराग्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । मिथ्याज्ञानोंसे वीतराग विज्ञान नहीं
है
न हि सा श्रुतमयी तश्वविषया श्रुतस्य प्रमाणत्वानुषंगात्, तच्वविवक्षायां प्रमाणं सेति चेत् तर्हि चिन्तामयी स्यात् तथा च न श्रुतमयी भावना नाम, परार्थानुमानरूपा श्रुतमयी, स्वार्थानुमानात्मिका चिन्तामयीति विभागोऽपि न श्रेयान्, सर्वथा भावनायास्तस्वविषयत्वायोगात् ।
वह आपकी मानी हुमी श्रुतमयी - भावना तो वास्तविकतत्त्वों को नहीं जान सकती ह यदि श्रुतमयी भावना से शास्त्रोक्त तत्वोंका चिन्तन करोगे तो शास्त्रज्ञानको तीसरा प्रमाण माननेका प्रसङ्ग आवेगा, किन्तु आप बौद्धोंने प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण माने हैं। यदि आप ऐसा कहोगे कि निर्विकल्पक ज्ञानके विषयभूत वास्तविक तत्वोंको शास्त्र के द्वारा कहनेकी इच्छा होने. परश्रुतमयी भावनाको भी हम परार्थानुमान प्रमाण मानते हैं, तब तो वह परार्थानुमानरूप श्रुतमयी भावना नहीं रही किन्तु दूसरोंके लिए बनाये गये अनुमानरूप शास्त्र के वचनोंकी भावना करते करते चिन्तामयी भावना पैदा हो गयी है । क्या अप्रामाणिक वचनोंसे परार्थानुमानरूप श्रुतमयी भावना और स्वार्थानुमानरूप चिन्तामयी भावना उत्पन्न हो सकती है ? कभी नहीं। चूहोंसे उत्पन्न किये गये मी हे ही होते हैं। झूठे ज्ञानोंसे सच्चे ज्ञान उत्पन्न नहीं होते हैं। इस कारण परार्थानुमानरूप श्रुतमयी और स्वार्थानुमान चिन्तमय का भेद करना भी अच्छा नहीं है। क्योंकि आपके यहां शब्दोंकी योजनासहित ज्ञानको भावना माना है। ऐसी अवस्तुको विषय करनेवाली भावना द्वारा ठीक ठीक तत्त्वोंको जानलेना आपके मतसे ही नहीं बनता है ।
तत्त्वप्रापकत्वाद्वस्तु विषयत्वमिति चेत्, कथमवस्त्वालंबनासा वस्तुनः प्रापिका १