Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
प्रकार एक पदार्थ विरुद्ध सरीखे दीखते हुए अनेक धर्मोका भी आपको मानना प्रतीतिबलसे प्राप्त हो गया और यों एक वस्तुमै अनेक धर्मोंको माननेवाले दूसरे जैनों के उत्कृष्ट स्याद्वाद सिद्धांत - मलकी मी सिद्धि हो गयी। जैसे एक आत्मा प्रमाता और प्रमेय दोनों बन जाता है उसीके समान अपनी प्रमिति साधकतम हो जानेके कारण वही आत्मा प्रमाण भी बन जावेगा । अतः नैयायिकों के ऊपर पूर्व में कहे गये अनवस्या और अपने सिद्धांत से विरोध आदि सम्पूर्ण दोष लागू होंगे । उन दोषfer निवारण कैसे भी नहीं हो सकता है ।
स्वसंवेद्ये नरे नायं दोषोऽनेकान्तवादिनाम् । नानाशक्त्यात्मनस्तस्य कर्तुत्वाद्यविरोधतः ॥ २१२ ॥ परिच्छेदकाहि प्रभातात्मा प्रकोपते । प्रमेयश्व परिच्छेयशक्त्याकांक्षाक्षयात्स्थितिः ॥ २१३ ॥
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हम स्याद्वादी जन आत्माको स्व के द्वारा वैध मानते हैं। अतः अनेकांतवादियोंके ऊपर उक्त दोष नहीं आता है जब कि आत्मा ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञानरूप अनेक शक्तियों के साथ तादात्म्य रखता है तो उसको इसिका ज्ञातापन, ज्ञेयपन और कारणपना आदि माननेमें कोई भी विशेष नहीं है | आत्मा पदार्थों को स्वतंत्र रूपसे जानता है अतः परिच्छेदकशक्तिके द्वारा वह निश्वयसे प्रमाता है । और स्वयं अपनेको जानता हुआ भी प्रतीत हो रहा है अतः वह परिच्छेश स्वभावसे प्रमेय भी है । और जैसे अभि अपने दाहपरिणामसे जलाती है वैसे ही आत्मा अपने सच्चे ज्ञानपरिणामसे जानता है अतः आत्मा प्रमाणस्वरूप भी हे । बस, इतनेसे ही आकांक्षाएं निवृत्त हो जाती हैं। इस कारण अनेकांत में अनवस्था दोष नहीं आता है। यदि किसी व्यक्तिने इच्छावश आत्माको जानने के लिये दूसरा ज्ञान भी उत्पन्न किया हो वह अभ्यासदशाका ज्ञान स्वयं प्रत्यक्षरूप है । दूसरी कोटिपर ही अन्य आकांक्षा न होनेके कारण जिज्ञासुओं की स्थिति हो जावेगी । जिसको आकांक्षा उत्पन्न नहीं हुयी है, उसके लिये पहिला ज्ञान ही पर्याप्त है |
यतः
ननु स्वसंवेद्येऽप्यात्मनि प्रमातृत्वशक्तिः प्रमेयत्वशक्तिश्च परिच्छेदकशक्त्यान्यया परिच्छेद्या, सापि तत्परिच्छेदकत्व परिच्छेद्यत्वशक्तिः परया परिच्छेदकशक्त्या परिच्छेद्येत्यनवस्थान मन्यथाद्यशक्ति मेदोऽपि प्रमातृत्वप्रमेयत्व हेतुर्भाभूत् इति न स्याद्वादिनां चोधम् । प्रतिपराकांक्षाक्षयादेव कचिदवस्थान सिद्धेः । न हि परिच्छेदत्वादिशक्तिर्यावस्त्वयं न ज्ञाता तावदात्मनः स्वप्रमातृत्वादिसंवेदनं न भवति येनानवस्था स्यात् । प्रमातृत्वादिस्वसंवेदनादेव तच्छक्तेरनुमानाभिराकांक्षस्य तत्राप्यनुपयोगादिति युक्तमुपयोगा
त्मकत्वसाधनमात्मनः ।