Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
जाता है, किंतु इस प्रकार नैयायिकोंने आलाको अपनी प्रमितिके प्रति निमित्तकारण बिलकुल नहीं कहा है, अतः इस प्रकार आत्मामें अपना प्रमेयपना और प्रमातापन नहीं बन सकता है ।
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प्रमीयमाणो ह्यर्थः प्रमेयः प्रमाणसहकारी प्रमित्युत्पत्तिं प्रति निमित्तकारणत्वादिति वाणः कथमात्मनः स्वप्रमिति प्रति समवायिनः प्रमातृतामात्मसात्कुर्वतः श्रमेयत्वमाचचीत विरोधात् । न चात्मा स्वप्रमां प्रति निमित्तकारणं समवायिकारणत्वोपगमात् ।
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जो अर्थ निश्वयले प्रमाण के द्वारा जाना जा रहा है वह प्रमेय है क्योंकि प्रमिति की उत्पत्तिमें निमिचकारण हो जानेसे वह प्रमाणका सहकारी है । इस प्रकार कहनेवाला नैयायिक आत्माको प्रमेय मला कैसे कह सकता है क्योंकि आत्मा अपनी प्रमितिके प्रति समवायीकारण हो गया है | अतः प्रमातापनेको आत्माने अपना अधीन स्वभाव कर लिया है । जो प्रभितिका समवायी कारण बन चुका है वह उसीका निमिक्षकारण मला कैसे बन सकता है। क्योंकि विरोध है । और आस्मा अपनी प्रमिति के प्रति निमित्तकारण भी तो नहीं है । क्योंकि आपने पहिलेले ही मास्माको समवायी कारण मान लिया है ।
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यदि पुनरात्मनः स्वप्रमिति प्रति समवायित्वं निमित्तकारणत्वं चेष्यतेऽर्थं प्रमिति प्रति समवायिकारणत्वमेव तदा साधकतमत्वमप्यस्तु, तथा च स एव प्रभावा, स एव प्रमेयः, स एव च प्रमाणमिति कृतः प्रमादप्रमेयप्रमाणानां प्रकारान्तरता नावतिष्ठेत १ ।
यदि आप वैशेषिक फिर यों इष्ट करें कि आप अपनी प्रमितिके प्रति समवायी कारण है और निमित्तकारण मी है किंतु अन्य घट, पट आदिक पदार्थोंकी प्रमितिके प्रति समवायी कारण ही है, तब तो आप आत्माको अपनी प्रमितिका प्रकृष्टकारक रूप करण हो जाना भी मान लेवे । तथा च सिद्ध हुआ कि वही आत्मा प्रमाता है और यही प्रमेय है, एवञ्च वही प्रमाण भी है। इस प्रकार जब तीनों एक हो गये तो प्रमासा, प्रमेय और प्रमाणोंको तत्त्वभेद नहीं होते हुए भित्र प्रकारपना कैसे नहीं व्यवस्थित हो सकता है ? भावार्थ- प्रमाण, प्रमेय, भादि न्यारे न्यारे सत्त्व नहीं हैं । विशेष्यसे भिन्न हो रहे मात्र विशेषण हैं |
कर्तृकारकात् करणस्य भेदान्नात्मनः प्रमाणत्वमिति चेत्, कर्मकारकं कर्तुः किमभि यतस्तस्य प्रमेयत्वमिति नात्मा स्वयं प्रमेयः ।
स्वतंत्र कर्ता कारक करण कारक सर्वथा भिन्न होता है, अतः आत्माको प्रमितिका करणरूप प्रमाणपना नहीं है। ऐसा यदि कहोगे तो क्या आप नैयायिक मत कर्ता कर्म कारक अभिन्न है जिससे कि आप उस आत्माको प्रमेयपना सिद्ध कर देवें । यो भेद माननेपर आत्मा स्वयं प्रमेय मी नहीं हो सकता है । तथा च आत्माका प्रमेयपना भी गांठका चला गया। आपने गौतमसूत्र के