Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वाचिन्तामणिः
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उस पमेयरूप आत्मासे प्रमातारूप कर्ता यदि भिन्न मानोगे सो यह तो ठीक नहीं है क्योंकि नैयायिकोंने एक शरीरमें अनेक आत्माएं नहीं स्वीकार की हैं। यदि एक शरीरमें दूसरा आत्मा मानोगे तो वह आत्मा भी “ मैं मैं " इस ज्ञानका विषय होयेगा । अतः प्रमेय हुआ। तथा च उस आत्मा प्रमेयके लिए तीसरे कारूप पमाता आत्माकी कल्पना करनी पडेगी। तीसरा आस्मा मी अहं ज्ञानसे जाना जावेगा । उस प्रमेयके लिये भी चौथा न्यारा प्रमाता आत्मा कसित करना पडेगा। ऐसा करते करते अनवस्था दोष हो जानेका प्रसङ्ग आवेगा तथा जिस समय आत्मा स्वयं जाना जा रहा है उस एक आमाको अपने ज्ञानकी अपेक्षासे प्रमातापन बन नहीं सकता है । उस समय तो वह प्रमेय है | दूसरा कोई आत्मा वहां सम्भवता नहीं है जो कि कर्ता बन जावे।
और जिससे कि विरोष होना टल सके। भावार्थ--एक आत्मामें कर्ता और कांपनेका विशेष रहेगा ही, यह नैयायिकोंके लिये विषम समस्या उपस्थित है।
स्वस्मिन्नेव प्रमोत्यत्तिः स्वप्रमातृत्वमात्मनः । प्रमेयत्वमपि स्वस्य प्रमितिश्चेयमागता ॥ २०६ ॥
अपनी आत्माकी प्रमितिका अपनेमे ही उत्पन्न हो जाना अपना प्रमाणपन है एवं आत्माके स्वकी प्रमितिका कापन है, और वहीं अपनेको जानना प्रमेयपना भी है, तथा जानना यही अपनी प्रमिति भी हुयी इस तरह एक ही आत्मामै तीनों या चारों धर्म आगये यही तो जैनसिद्धांत है।
यथा घटादौ प्रमितेरुत्पत्तिस्तत्प्रमातृत्वं पुरुषस्य, तथा स्वस्मिभव तदुत्पत्तिः स्वप्रमातत्वं, यथा च घटादेः प्रमिती प्रमेयत्वं तस्वैव, तथात्मनः परिच्छित्तौ स्वस्यैव प्रमेयस्वम्, यथा घटादेः परिच्छत्तिस्तस्यैव प्रमितिस्तथात्मनः परिच्छिधिः स्वप्रमितिः प्रवीविषला दागवा परिहर्तुमशक्या ।
इस वार्तिकका भाष्य यों है कि जैसे घट, पट भाविकको विषय करनेवाली प्रमितिका उत्पन्न हो जाना ही आत्माको उसका प्रमातापन है वैसी ही अपने आप में ही अपनी प्रमितिकी उत्पत्ति हो जाना आत्माका अपना प्रमालापन है। और जैसे अपनी प्रमिति होने पर घट आदिकको प्रमेयपना है वैसे ही आस्माकी शप्ति होनेपर स्वयं उस आत्माको ही प्रमेयपना है। तीसरे जैसे घट, पट आदिकी समीचीन ज्ञप्ति होजाना ही उनकी प्रमिति है वैसे ही आत्माकी ज्ञप्ति मी आत्माकी प्रमिति है । यह बास प्रमाणप्रसिद्ध प्रतीतियों के बलसे प्राप्त हो जाती है । इसका कोई निवारण नहीं कर सकता है। द्रव्यार्थिक नयसे चारों धर्म एक आत्मा संघटित हैं।
तथा चैकस्य नानात्वं विरुद्धमपि सिद्धयति । न चतस्रो विधास्तेषां प्रमात्रादिप्ररूपणात् ॥ २०७॥