Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
होगा । कारण कि अपने आप ज्ञात होनेवाले उस स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के बहिरंग इन्द्रियोंकी अपेक्षा रखना प्रतीत नहीं होरहा है ।
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स्वरूपमा परामशित्वाचथा न स्वसंवेदन पहिःकरणापेक्ष स्वरूपमात्रपरामर्शित्वात्, यन तथा तन तथा नीलवेदनं स्वरूपमात्रपरामर्शि चाहं सुखी त्यावेदनमित्यनुमानादपि तस्य तथाभावा सिद्धेः ।
तथा "मैं सुखी हूँ" इत्याकारक ज्ञान उस प्रकार आत्मा और ज्ञानके स्वांशोंको ही अवलम्ब करता है। यहां यह अनुमान है कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ( पक्ष ) अपनी उत्पतिमें बहिरंग इंद्रियोंकी अपेक्षा नहीं करता है ( साध्य ) क्योंकि वह केवल अपने स्वरूपका ही विचार करनेवाला है ( हेतु ) यहां व्यतिरेकदृष्टांत है कि जो उस प्रकार साध्यवाला नहीं है अर्थात् पहिरंग इंद्रि योंकी अपेक्षा रखता है । वह जैसा अन्तस्तत्त्वको ही विषय करनेवाला होवे, यह नहीं है। जैसे कि नीळा, मीठेका, और ठण्डेका ज्ञान है । मैं सुखी हूं यह ज्ञानस्वरूप मात्रकी ही विशदज्ञप्ति करानेवाला है ( उपनय ) उस कारण बहिरङ इंद्रियोंकी अपेक्षा नहीं रखता है (निगमन) यहां परामर्शका अर्थ विचार करना रूप श्रुतज्ञान नहीं है किंतु विलक्षण क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ अतरंग आत्मीयतरत्रोंकी विशिष्ट क्षप्ति होना है। इस प्रकार अनुमानसे भी उस स्वसंवेदन को वैसा होना यानी इंद्रियोंकी अपेक्षा रखना सिद्ध नहीं होता है ।
स्वात्मनि क्रियाविरोधात् स्वरूपपरामर्शनमस्यासिद्धमिति चेत् ।
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चार्वाक कहते हैं कि किया अपने कर्ता या कर्ममें रहती है। जैसे कि देववच सोता है । यहां शमनक्रिया देवदर्शने रहती है। जिनदत्त भात पकाता है। यहां पचनक्रिया मासमें रहती है। अकर्मक सपना स्वयं शयनमें नहीं रहती है और सकर्मक पाकक्रिया अपने आप पाकमे नहीं ठहरती है अर्थात् पाखमें पाक नहीं होता है। शयन स्वयं नहीं सो जाता है। इस तरह जानना रूप किया स्वयं ज्ञानमें नहीं रह सकती है। स्त्रसंवेदन में ज्ञानका ज्ञान करके ज्ञान होना नहीं बनता है । अतः स्वास्मा क्रियाका विरोध हो जानेसे इस संवेदन प्रत्यक्षका अपने रूपमें ही विशि करना भसिद्ध है। ग्रंथकार करते हैं कि यदि चार्वाक यों कहेंगे तो सुनोः
तद्विलोपे न में किंचित्कस्यचिद्व्यवतिष्ठते । स्वसंवेदन मूलत्वात्स्वष्टतत्त्वव्यवस्थितेः ॥ १०४ ॥
उस अपने आपको जाननेवाले झानका लोप हो जानेपर किसी भी वादीका कोई भी सत्वस्थित न हो सकेगा। क्योंकि सर्ववादियों को अपने इष्टतत्वोंकी व्यवस्था करना स्वसंवेदन ज्ञान की नींवर अति होरहा है। अर्थात् परमकाशक ज्ञानके द्वारा ही अमीष्ट तत्वोंकी सिद्धि
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